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स्वीकार करता है । सिद्धभगवन्तों का विकलात्मक स्वरूप ही मानता है। सभी सिद्धभगवन्तों को एकात्मक स्वरूप से नहीं देखता है तथा विशेष से भिन्न सामान्य तो खरविषाण के समान है । यथा 'सत्स्वरूप जगतः' विश्व सत्तात्मक स्वरूप में समस्त को ग्रहण करने वाला संग्रहनय है किन्तु व्यवहारनय उसमें भेद करता रहता है । प्रश्नरूप में कहते हैं कि-वह सत् जीवरूप है या अजीवरूप है ? 'केवल जीवरूप है' ऐसा कहने से भी फिर प्रश्न होगा कि वह जीव देव है, मनुष्य है, तिर्यंच है या नारक है ? इस तरहे व्यवहारनय तब तक भेद करता रहता है, जब तक उसके प्रयोजन की सिद्धि नहीं हो जाती । व्यवहारनय विशेष धर्म का ही पक्षपाती है । सामान्य का प्रतिपक्षी तथा विशेष से पृथक् खरशृङ गवत् ही सामान्य को मानता है। व्यवहारनय का मुख्य प्रयोजन व्यवहार की सिद्धि का है ।।८।।
[६] व्यवहारनयस्य दृष्टान्तद्वारास्पष्टीकरणम्
[ उपजातिवृत्तम् ] वनस्पति त्वं त्वरित गृहाण,
प्रोक्तेऽपि गृह णाति न कोऽपि किचित् । आम ददस्वादि विशेषशब्द,
वदेन तावद्धि तथा प्रयोगः ॥९॥
नयविमर्शताधिशिका-२३