Book Title: Nayvimarsh Dwatrinshika
Author(s): Sushilsuri
Publisher: Sushilsuri Jain Gyanmandir

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Page 42
________________ इसलिये सामान्यधर्म मानना ही तर्कसिद्ध है। समुद्र तथा उसका जलांश भिन्न नहीं है। भले ही अंश को विशेषरूप से पृथक् मान लें परन्तु सामान्या को ही युक्त मानना श्रेष्ठ है । ये विशेष सामान्य में ही समाविष्ट हैं, अन्तहित हैं। विशेषावश्यक में भी कहा है"चूमो वरणस्सइच्चिय, मूलाइगुरगोत्तिः तस्समूहोव्व । गुम्मादो वि एवं, सव्वे न वरणस्सइ-विसिट्टा ॥" [विशेषावश्यक-२२१०] व्यवहारनयस्वरूपदर्शनम् [ उपजातिवृत्तम् ] विना विशेषं व्यवहारकार्य, चलेन्न किञ्चिज्जगतीह दृष्टम् । तस्माद् विशेषात्मकमेव वस्तु, सामान्यमन्यत् खरशृङ्गतुल्यम् ॥८॥ अन्वय : ___ 'इह जगति विशेषं विना व्यवहारकार्य किञ्चित् न चलेत् इति दृष्टम्, तस्मात् विशेषात्मकं एव वस्तु अन्यत् सामान्यं खरशृङ्गतुल्यं (एव अस्ति)' इत्यन्वयः । व्याख्या : इह अस्मिन् जगति विश्वे विशेष विना भेदमत्या विना पृथक्करणविना व्यवहारकार्य व्यवहारनयस्य किञ्चित् नयविमर्शद्वात्रिशिका-२१

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