Book Title: Nayvimarsh Dwatrinshika
Author(s): Sushilsuri
Publisher: Sushilsuri Jain Gyanmandir

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Page 43
________________ अपि कार्य जीवनस्य व्यवहारं न प्रभवति । इति व्यवहारनये दृष्टम्, तस्मात् अतः विशेषात्मकं विशेषस्वरूपं एव ग्राह्य विशेषधर्ममेव ग्राह्यम्, विशेषभिन्न अन्यत्-अन्यम् सामान्य विशेषविपरीतं खरशृङ्गतुल्यं खरस्य शृङ्ग खरशृङ्ग तस्य तुल्यं खरशृङ्गतुल्यं गर्दभस्य शृङ्गमिव सत्ताविहीनं अस्तित्वहीनं अस्ति । तत्त्वार्थेऽपि उदाहृतं जगत् सत् सत्तात्मकं संकलनात्मकं विशेषम्"अतो विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहारः" [तत्त्वार्थ राजवातिक १,३३,६] व्यवहारनयः विशेषधर्मव्याफलेन एव पदार्थ गृह गणाति । विशेषव्यतिरिक्तं नैव किञ्चित् ॥८॥ पद्यानुवाद : [ हरिगीतिकावृत्तम् ] व्यवहारनय नित्य मानता है निखिल वस्तुमात्र को, विशेषधर्मात्मकमयी मत जान अन्यरूपी उनको । बिना विशेषात्मकरूप वस्तुमात्र सामान्य रूप में, खरशृग की समान ये असत् दीखातो है विश्व में ॥८॥ भावानुवाद : व्यवहारनय विधिपूर्वकं अवहरणं व्यवहारः' । इस तरह व्युत्पत्ति दर्शाता हुअा, वस्तु को विशेष धर्मात्मक ही नयविमर्शद्वात्रिशिका-२२

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