Book Title: Nayvimarsh Dwatrinshika
Author(s): Sushilsuri
Publisher: Sushilsuri Jain Gyanmandir

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Page 33
________________ व्याख्या : ___सामान्यधर्मेण घटत्वरूपेण मृण्मयोऽयं घटः इति सामान्यरूपेण लक्षाधिके घटानां लक्षाधिक्या ततिषु घटत्वबुद्धया मृण्मयपात्रत्वदृष्टया सदैक्यं सर्वदैक्य न तु पार्थक्यम् । अयमपि मृण्मयघटरयमपि मण्मयघटः इति सामान्यधर्मेण सदा ऐक्य एकरूपं वर्तते, किन्तु तेभ्यः घटेभ्यः विशेषधर्मेण रक्तो वा पीतः, दी? वा लघु इत्यादि वैशिष्ट्ये न पार्थक्यं विशेषधर्मः इति अनेन धर्मेण लोकाः जनाः अस्माकं घटोऽयं अयमस्माकमिति वैशिष्यं मानयित्वा गृह णन्ति । पद्यानुवाद : [ इन्द्रवज्रावृत्तम् ] सामान्यधर्माकृति एकरूपा, . दोसे सदा लक्ष घटेप्यधिका । जो है उसी में स्वघटे इयत्ता, जाता पहीचान विशेषरूपा ॥४॥ भावानुवाद : वस्तु का सामान्यधर्म एक दृष्टिकोण है जैसे हजारों घड़ों की पंक्ति एकाकार को अभिव्यक्त करती है। हजारों घड़ों में मिट्टी का तत्त्व तथा समान प्राकृति, जलाहरण का उपयोग आदि एक धर्म है । इस दृष्टिकोण से यह भी नयविमर्शद्वात्रिशिका-१२

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