Book Title: Nayvimarsh Dwatrinshika
Author(s): Sushilsuri
Publisher: Sushilsuri Jain Gyanmandir

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Page 37
________________ इस नय में सामान्य और विशेष दोनों का रहना आवश्यक समझा गया है अर्थात् नैगमनय में सामान्य और विशेष दोनों धर्म स्वीकृत हैं। दोनों के ग्रहण में मात्र गौण-मुख्यभाव पर बल रहेगा। नैगम का दूसरा अर्थ भी हो सकता है । इस बात का समर्थन 'विशेषावश्यकभाष्य' की निम्नलिखित गाथा में हैलोगत्थ-निबोहा वा निगमा, तेसु कुसलो भवो वा य । अहवा जं नेगगमोऽणेगपहा णेगमो तेणं ॥ [विशेषावश्यक भाष्य-२१८७] -लोकरूढ़ि के बोधक पदार्थ 'निगम' कहलाते हैं, उन निगमों में जो कुशल है वह नैगमनय है। अथवा जिसके अनेक गम-जानने के मार्ग-हैं वह नैगमनय है । विश्व में लोकरूढ़ियों द्वारा संस्कारों के कारण जो भी विचार उत्पन्न होते हैं वे समस्त इस नैगमनय की कोटि में समा जाते हैं ।।५।। संग्रहनयस्वरूपम् ( उपजातिवृत्तम् ) नयो द्वितीयः किल संग्रहोऽयं, सामान्यमेवार्च ति निविशेषम् । सामान्यधर्माद व्यतिरिक्तधर्माः, मिथ्या खपुष्पस्य समानमेव ॥६॥ नयविमर्शद्वात्रिशिका-१६

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