Book Title: Nayvimarsh Dwatrinshika
Author(s): Sushilsuri
Publisher: Sushilsuri Jain Gyanmandir

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Page 38
________________ अन्वय : 'किल अयं संग्रहः द्वितीय: नय: ( अस्ति ) | ( यः ) निर्विशेषं सामान्यं एव प्रर्चति । सामान्यधर्माद् व्यतिरिक्तधर्माः : खपुष्पस्य समानं एव मिथ्या' इत्यन्वयः । व्याख्या : किल निश्चयार्थे ध्रुवमेव प्रयं एषः संग्रहः द्वितीयः अन्य : नयः संग्रहनयः निर्विशेषं विशेषात्मकं सामान्यं एव सामान्यात्मकमेव अर्चति निश्चिनोति । सामान्यधर्माद् सामान्यांत्मकत्वात् अन्यं किञ्चित् अपि व्यतिरिक्तधर्माः पृथक् प्रन्यसत्तात्मकधर्माः खपुष्पस्य गगनकुसुमस्य समानं सदृशं एव मिथ्या व्यर्थं श्राधाररहितं मन्यते । उक्तम् “सामान्यसत्तामात्रग्राही सत्तापरामर्शरूपसंग्रहः ; स परापरभेदाद् द्विविधः, तत्र शुद्धद्रव्यसन्मात्र ग्राहकः चेतना - लक्षणो जीव इत्यपरसंग्रहः ।" [ नयचक्रसारानुसारेण ] पद्यानुवाद : ( हरिगी तवृत्तम् ) संग्रहनय वस्तु मात्र को सामान्य स्वरूपी मानता, है कोई भी यदि इतर तो वे दृष्टि की प्रज्ञानता । आकाश कुसुमों की प्राप्तता क्या कदापि होती है ?, वैसे भी विशेषी सामान्यों से नहीं विभिन्न है || ६ || नयविमर्शद्वात्रिंशिका - १७

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