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दो
सँकरी सड़क । ढलान की ओर फूटती हुई पगडण्डी जैसे विधवा की माँग । दोनों ओर दो बड़े-बड़े पेड़ । एक अशोक का, दूसरा बकुल का । मधु ने बताया : "ये पेड़ प्रभु वृन्दावन से लाये थे ।"
"वृन्दावन से !" माणिक बॅरा ने बड़े भक्ति भाव से पूछा । "हाँ !"
वे तीनों जन पेड़ों के पास ठमक गये। तभी मधु ने कहा :
"लाओ, चिट्ठी दे दो । प्रभु को दिखा लाता हूँ। हर किसी का उधर जाना मना है।"
भिभिराम ने जेब से निकालकर देते हुए कहा :
"लो, पर देर मत करना ।"
धनपुर ने एक और बीड़ी सुलगा ली ।
माणिक बॅरा अपने सहज भक्ति भाव में भीगा हुआ एक पेड़ के तने से लगा हुआ गाने लगा :
हे कुरुबक अशोक चम्पा
कहो बात कर अनुकम्पा मानिनी का दर्प कर चूर गये बता कृष्ण कत दूर री तुलसी बतलादे ना तू ही हरि की चरण-प्रिया
"माणिक भैया !" बीड़ी का धुआं छोड़ते हुए धनपुर ने कहा, "बकुल की गंध तले गोपी बनने का जी कर रहा है क्या ? तुम्हारे ये गीत मुझे तो नहीं सुहाते ।"
पद पूरा करते हुए माणिक ने उतर दिया :
"तुम्हारा तो स्वभाव ही आसुरी है, धनपुर । तुम कहाँ समझोगे इन गीतों को ! जैसा स्वभाव, उसी के अनुरूप विचार ।"
धनपुर ने और गहरा कश लगाते हुए कहा :
"सुभद्रा पर अत्याचार होते समय तुम्हारा भगवान कहाँ चला गया था ?"