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ज़रूर।"
"मेरी भी यही धारणा है।" गोसाई की खाँसी उपटना ही चाहती थी कि उन्होंने उसे संयमित कर लिया। इसे चौबीस घण्टों तक तो रोकना ही होगा। उसके बाद जो होगा, देखा जायेगा। उन्होंने गौशाला की ओर कान लगाया। बछड़े के लिए गाय अब भी रँभा रही थी। उसकी रँभाई उसके प्राणों का करुण क्रन्दन थी। उन्हें बार-बार गोसाइन की याद आने लगी।
उन्होंने चन्द्रमा की ओर निहारा। लगा, कि बादलों की एक टुकड़ी ने चांद को वैसे ही ढक लिया है जैसे आँचल ने गोसाइन का मुखड़ा। यह चाँद भी विचित्र है ! ग्रामीण वधू के मुखड़े जैसा कभी नहीं लगता वह । वह तो आँचल या ओढ़नीविहीन अत्याधुनिक मेम साहिबा के मुखड़े जैसा ही दीखता है। या फिर कभी जिले के बड़े साहब के साथ शिकार के लिए मायङ आनेवाली मेमसाहिबा के मुख जैसा दीखता है । मेम साहिबाओं के चेहरे ठण्डे देशों में ही सुन्दर दीखते हैं, इस गर्म देश में तो उनका चेहरा घमौरियों से भर जाता है। रहतीं तो वे अर्धनग्न हैं। गोसाइन की तरह नहीं रहतीं। शयनकक्ष से बाहर निकलते समय भी गोसाइन अपनी देह को पर-पुरुष की नज़रों से भरसक बचाने की ही चेष्टा करती हैं । वृद्धावस्था तक यही रीति जारी रहेगी। आजीवन ऐसा ही चलेगा। पता नहीं क्यों, उन्हें अपने देह-सौष्ठव को प्रदर्शित करने में एक प्रकार का भय, संकोच होता
___"कल यदि मुझे कुछ हो जाय तो क्या होगा ? हुँह, इन आपदाओं की बात भला मैं स्वयं क्यों सोच रहा हूँ। आकाश में जब तक चाँद रहेगा, तब तक वे भी रहेंगी और मैं भी रहँगा," गोसाई ने अपने आप से कहा। ___ अचानक बाहरी फाटक के खुलने की आवाज़ सुनाई पड़ी। भिभिराम आगे बढ़ गया । थोड़ी दूर पर ही उसने देखा कि रूपनारायण तो नहीं, हां एक महिला अवश्य इसी ओर आ रही है। उसे देखकर भिभिराम अचकचा गया। महिला को रोकते हुए उसने पूछा :
“कौन हो तुम ? आश्रम में क्यों आयी हो?" वह खिलखिलाकर हँस पड़ी। बोली : "मैं डिमि हूँ। भिभि भैया, तुमने मुझे पहचाना नहीं ?"
“डिमि !" भिभिराम की हालत ऐसी हो गयी, मानो वह जमीन पर खड़ा ही नहीं रह सकेगा : आश्चर्य है ! इसे पता कैसे चला कि हम यहाँ है ? फिर यहां आने की इसे आवश्यकता क्यों पड़ी? इससे पूछताछ कर अभी ही सब कुछ स्पष्ट कर लेना होगा। यह कामपुर का घर नहीं कि मुझे अपनी पत्नी के पास बैठाकर यह स्वयं कुदाल उठा खाँढ़-पिछवाड़ें की सफाई करने के लिए निकल जाये । यह है लड़ाई का मैदान !
.84 1 मृत्युंजय