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आने की आहट सुनाई पड़ी। इसी बीच वह कुत्ता भी दौड़ता हुआ आया और आँगन में धम् से गिर पड़ा। धनपुर ने पास जाकर उसके घाव को देखा । फिर अपने बैग से फ़िनाइल की एक छोटी शीशी निकाल थोड़ी-सी उसकी अगली टाँग के घाव पर छिड़क दी । जलन के कारण कुत्ता काँय काँय कर उठा ।
महिलाएँ धीरे-धीरे अन्दर आ गयी । आगे थीं गोसाइन, उनके पीछे थीं बानेश्वर राजा की पत्नी और कई दूसरी स्त्रियाँ | सबके कपड़े अस्त-व्यस्त हो गये थे। चांदनी में भी किसी का चेहरा अच्छी तरह पहचाना नहीं जा रहा
था ।
धनपुर आगे बढ़ गया । उसकी आँखों के सामने ठीक वैसा ही दृश्य नाच उठा जैसा उसने कभी बचपन में देखा था जब कामपुर स्टेशन पर बर्मा से आये हुए शरणार्थी जमा हुए थे । युद्ध छिड़ जाने के कारण वे दूसरे देश से यहाँ भागकर आ गये थे । उनमें से कई - एक की देह पर कपड़े तक नहीं थे । लेकिन यहाँ तो गोसाइन वगैरह को अपने घर में ही शरणार्थी बनना पड़ा है ।
इसी समय गोसाई कमरे से निकलकर बाहर आ गये। गोसाइन को देखकर वे वहीं ठिठक गये । उनके मुख से कोई बात तक नहीं निकली, मानो उन्हें काठ मार गया हो । गोसाइन ने आगे बढ़कर उनके पैर छुए और कहा, "मैं आपको भगवान के हाथों सौंप चुकी हूँ। मैं भी अब उन्हीं की शरणागत हूँ ।"
और फिर सिसकियाँ सुनाई पड़ीं ।
धनपुर ने ढाढस बँधाते हुए कहा, "आप लोग चिन्ता न करें । घण्टे डेढ़ घण्टे के भीतर ही हम आहिना कोंवर को यहाँ भेज देंगे ।"
डिमि ने एक बार फिर ऊपर की ओर देखा । चाँद अब भी नाच रहा था । वह किसी के भविष्य के बारे में क्या बताये !
धनपुर महिलाओ को कमरे में ले जाकर बैठा आया। फिर आकर डिमि से बोला :
"यदि तुम्हारी झोली में छत्छत् और हो तो यहीं देती जाओ । खाने के लिए भी जो कुछ है, उसे भी रखती जाओ।" फिर गोसाइन की ओर मुड़कर उसने कहा, "आप लोग तनिक भी चिन्ता नहीं करेंगी । चिन्ता करने से होगा भी क्या ?"
" आज कई दिनों से रात में हिरणी का क्रन्दन सुन रही हूँ ।" गोसाइन इतना ही कह पायीं कि उनका गला रुँध गया । गोसाईं को आशंका हुई कि कहीं यह सुभद्रा की मौत वाली बात न कह उठे । अगर ऐसा हुआ तो सारा बना हुआ काम बिगड़ जायेगा, फिर कुछ भी नहीं हो सकेगा । इसीलिए उन्होंने आगे बढ़कर पुकारा :
"धनपुर ! आओ चलें, चलने का समय हो गया । यहाँ किसी प्रकार का भय मृत्युंजय | 116