Book Title: Mrutyunjaya
Author(s): Birendrakumar Bhattacharya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 246
________________ I आरती से भी मैं यही कहूँगा । यदि वह सचमुच मुझे चाहती है तो वह अपना सारा प्यार इसी विशाल माता को अर्पित कर दे। मुझे तभी सन्तोष मिलेगा । केवल अपने को ही नहीं, उसे चाहिए कि वह अपने पति को भी इसी ओर उन्मुख करे । मैं उसे आशीर्वाद दूंगा । अवश्य दूंगा । अब मेरे लिए आरती की चाहना निरर्थक है । अब मैं उसे मित्र या बहन के सहज सम्बन्ध के रूप में स्वीकार करूंगा । यों प्रगाढ़ सम्बन्ध बनाना तो अब मेरे वश की बात नहीं है । समय भी तो कहाँ मिला ! रुक्मिणी की तरह उसे अपहरण कर ले जाने की भी शक्ति तो मुझमें नहीं | हज़ारों वर्षों के संस्कार और अनुष्ठान को अकेले तोड़ने की क्षमता मुझमें नहीं है । इसके लिए तो एक अलग ही प्रकार की चेतना और जागरूकता की आवश्यकता होती है । उसे लगा, ये सारी बातें महज़ अपने को सन्तोष दिलाने भर के लिए ही हैं । उसका कण्ठ सूखने लगा था । अनुपमा ने बड़ी देर लगा दी । उसे रात में वापस भी तो होना है। टिको का भी पता नहीं चला। शायद उसे अब तक समय नहीं मिल पा रहा होगा । विवाहवाले घर में फेरे पड़ने, भोजन- परसादी वग़ैरह का काम अभी पूरा नहीं हो पाया होगा । ढोलक पर थाप पड़नी अवश्य बन्द हो गयी है । शायद ढोलकिये नींद में ऊँघ रहे होंगे। रूपनारायण ने अपनी घड़ी पर नज़र डाली । लोटने का समय भी निकला जा रहा है । तभी पैरों की आहट सुनाई पड़ी । अनुपमा ! अनुपमा एक सुघड़ और अविवाहिता किशोरी की तरह मुसकराती हुई आ रही थी । उसकी चाल में कोई अल्हड़ता नहीं थी । जबकि उसकी भरी-पूरी देह योवन के सारे वैभव और ऐश्वर्य से सम्पन्न थी । ब्राह्मण घरों की कन्याएँ चूंकि अल्प वय में ही ब्याह दी जाती हैं, इसलिए उसमें यौवन का आगमन वस्तुतः विवाहोपरान्त ही होता है । अनुपमा के विवाह के दो ही वर्ष तो बीते थे और उसे सयानी हुए कुछ ही माह । यौवन का ज्वार लहराया ही था कि पति मारा गया। विधवा ब्राह्मणी की ज़िन्दगी और मौत में अन्तर ही कितना होता है ? आजीवन देह को तपाना पड़ता है । निरामिष आहार और सादा जीवन । सारा जीवन बोझ बनकर रह जाता है । अनुपमा ने पास आकर कहा : " मेरे साथ आओ ।" "कहाँ ?” विवाह मण्डप की रोशनी आम के पेड़ तक चली आयी थी । उसमें अनुपमा 242 / मृत्युंजय

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