Book Title: Mrutyunjaya
Author(s): Birendrakumar Bhattacharya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 272
________________ आया । "मुझे गिरफ्तार करके क्या पा लोगे? आप वापस चले जायें। मैं अपने घर जा रही हूँ। गोसाइनजी भी जाना चाहती हैं। उन्हें भी लिवा जा रही हूँ। हम औरतों को घर में ही बहुत काम होता है। मर्दो के साथ आप चाहे जैसा उलझा करें।" डिमि इस बार निडर होकर शइकीया के सामने आ खड़ी हो गयी। शइकीया को बाध्य होकर थोड़ा पीछे हटना पड़ा । उसने रोष भरे स्वर में कहा : "मेरी गिरफ्तारी की बात छोड़ ! अब तू यहाँ से चला जा।" थोड़ी देर तक मौन साधे शइकीया अनुपमा की ओर देखता रहा । अनुपमा समझ गयी कि शइकीया क्यों आया था । वह कुछ बोली नहीं। डिमि की ओर मुड़कर इस बार शइकीया ने ज़रा कोमल धीमे स्वर में कहा : __ "तुम्हें गिरफ्तार करने मैं नहीं आया हूँ, डिमि। मैं यहाँ दूसरे काम से आया था । तुम्हें गिरफ्तार करेगी सदर थाने की पुलिस।" डिमि के चेहरे पर विरक्ति का भाव खिंच आया। बड़े उपेक्षाभाव से बोली : "तुम लोगों को वह परमेश्वर ही बतायेगा। कहाँ है तेरा वह दारोगा भला. बुला उसे । इस देह को अब और भला कितनी यातना दोगे ?" "अच्छा यह तो बता तूने इन लोगों का साथ क्यों दिया ? धनपुर के लिए न?" डिमि का चेहरा शर्म के मारे लाल हो उठा। लेकिन वह तुरन्त ही संभल गयी और ऊँचे स्वर में बोली : "हाँ, यही समझ लो। और कुछ ?" शइकीया चला गया। इस बार डिमि ने अनुपमा की ओर देखा । अनुपमा भी उसी की ओर टकटकी लगाये देख रही थी। दोनों एक दूसरे का परिचय जानने के लिए आकुल हो उठीं। डिमि बोली : "ओह, फिर जेल जाना पड़ेगा। क्या मुसीबत है ? भला तुम्हें क्या बताऊँ कि घर में कितने काम पड़े हैं। कहा नहीं जा सकता कि इस साल खेती-पाती होगी भी या नहीं। घर-दालान को तो इन दुष्टों ने आग लगाकर राख कर ही दिया है । क्या बताऊँ कि कितनी मुश्किल है। इस मुये ने तो मेरी देह को भी जूठा करना चाहा था । तनिक भी विचार नहीं है इसमें । पुलिस के पास दिमाग़ तो होता ही नहीं है । यह चाहता था कि मैं मायङ के आदमियों को पकड़वा दूं, पर मैंने वैसा नहीं किया । बस, इतनी-सी ही बात थी।" अनुपमा इस बार समझ गयी कि डिमि के दुःख का कारण क्या है। उसे यह भी महसूस हुआ कि पुलिस ने सचमुच सारे नीति-नियम ताक पर रख दिये हैं; 268 / मृत्युंजय

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