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"कुछ खाओगी नहीं ?"
"हाँ । अगर दे सकती हो तो कुछ ले लूंगी । आज दिन भर खाना हुआ कहाँ है। कुछ हो तो दे दीजिये।"
अनुपमा के उठकर जाने के बाद मौक़ा पा गोसाइन ने कहा-"री डिमि, मेरा मन यहाँ एकदम नहीं लग रहा है । अपने घर पहुँच जाती तो कितना अच्छा होता !"
"गोसाइनजी, मेरा मन भी तो घर की ओर ही लगा है। घर बनवा नहीं लेने तक मुझे भी चैन नहीं है।"
आँखें मूंदकर डिमि कुछ और बातें सोचने लगी। उसे धनपुर की याद आ गयी । आश्रम में खुले आकाश तले चाँदनी रात में धनपुर के साथ हुई उसकी बातें एक-एक कर ध्यान में आने लगीं मानो वह एक अलग संसार था । इस संसार के साथ उसका कोई मेल नहीं । कलङ नदी पार करते समय धनपुर का वह सपना उसके मन में सहसा कौंध गया। सुभद्रा के विरह से उसके हृदय को बड़ा सदमा पहुंचा था।
"क्या सोच रही है डिमि ?" गोसाइन ने एकाएक पूछा। "कुछ नहीं, यों ही सुभद्रा के बारे में..."
तभी उन्होंने कहा, "तू ज़रा बैठ । मैं बच्चे को भीतर सुलाकर अभी आयी।" डिमि वहीं बैठी रही। गोसाइन थोड़ी देर में लौट आयीं। आते ही बोलीं:
"कभी-कभी आधी रात को ऐसे लगने लगता है जैसे कहीं सुभद्रा रो-रोकर विलाप कर रही हो । उस रात चैन से सो भी नहीं पाती हूँ। धनपुर को उसके बारे में पता चल गया था न ?"
"हाँ ; मरने के समय।" "हाय राम !"
"धनपुर और गोसाईंजी। इन्हीं दोनों के बलबूते पर ही मिलिटरी एक्सप्रेस उलट सकी। पर बाद में दोनों को प्राण त्यागने पड़े। वे आत्म-बलिदान के लिए तैयार थे, समझीं न गोसाइनजी। आख़िरी घड़ी में शायद वे आपके लिए भी कुछ कह गये थे; कितनी सारी बातें हैं। उन्होंने अपना जीवन देश के लिए निछावर कर दिया।"
"हाँ डिभि, लेकिन देश को समझनेवाले आज कितने आदमी हैं ? हाँ, एक बात सोचकर ज़रूर संतोष मिलता है..."
"क्या ?"
"वे लोग धन-दौलत, बाल-बच्चे, घर-संसार सबसे अपने देश को कहीं अधिक प्यार करते थे।"
270 / मृत्युंजय