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उनमें कोई विचार नहीं रह गया है। यह औरत आज ही तो जेल से छूटी है, फिर अभी तुरन्त ही गिरफ़्तार करने की क्या आवश्यकता पड़ गयी । टिकौ का साथ देने के अभियोग में इसे केवल डांट-डपट कर देने ही से काम चल जाता । उसके साथ स्टेशन तक जाने से ही डिमि इतनी बड़ी अपराधिनी बन गयी ? बस, इतनी-सी बात पर ! सचमुच यह अत्याचार है, घोर अत्याचार । उसने डिमि से पूछा :
"तब तो तू रेल उलटनेवाले सभी आन्दोलनकारियों को पहले से ही जानती थी ?"
"हाँ । उसमें मेरा एक अपना आदमी भी था ।"
“इसमें तेरा कोई कसूर नहीं, डिमि । आदमी इतने पत्थर दिल नहीं हो सकते । मेरे पति की हत्या करनेवालों में और लोगों के साथ टिको भी रहा होगा । है न ।”
"क्यों ?"
"क्योंकि वह पुलिस आफ़ीसर थे," अनुपमा ने बताया ।
“हाय ! यह तो बड़ी दुखद बात है। हूँ, तो तुम उस समय इसीलिए उस तरह बोल रही थीं न ? बुरा मत मानना ।" यह सब मुझे जरा भी नहीं भाता । किसी की अकाल मौत क्यों हो ? किसी की भी जान नहीं जानी चाहिए ।"
fsfe अनुपमा से ऐसी ही बहुत सारी बातें कहती रही । उसकी अधिकांश बातें असम्बद्ध होते हुए भी बड़ी अन्तरंग और आत्मीय थीं । डिमि की सहानुभूति पाकर उसका हृदय भर आया । उसने कहा :
"चल, अन्दर चल । तेरे लिए ननद प्रतीक्षा कर रही हैं।"
दोनों भीतर चली गयीं । गोसाइनजी ने दोनों को देखकर संतोष की साँस ली । अनुपमा ने डिमि को बैठने के लिए एक पीढ़ा दिया। फिर दरवाज़े की ओर जा वह बैठकख़ाने का बाहरी दरवाजा बन्द कर आयी। वापस आ चटाई पर बैठी ही थी कि घड़ी ने टन - टन् कर पाँच बजा दिये। उधर रेलगाड़ी की सीटी भी सुनाई पड़ी।
"रेल तो चली गयी । तुम्हे इतनी देर कहाँ हो गयी री ?" गोसाइन ने कहा । fish से कुछ बोलते नहीं बना । पसीने से उसकी सारी देह भीग गयी थी । स्वयं अनुपमा ने ही सारी बातें विस्तारपूर्वक कह सुनायीं । सुनकर गोसाइन हँसती हुई बोलीं :
"बुख़ार के उत्तर जाने पर भी सिर में दर्द तो बना ही रहता है । कुछ-न-कुछ तो लगा ही रहेगा। हमारे भाग्य ही ऐसे हैं ।"
इसी बीच अनुपमा बोल उठी, "अभी तो वे आयेंगे ही !"
"आयेंगे तो आयेंगे डिभि ने उत्तर दिया ।
मृत्युंजय | 269