Book Title: Mrutyunjaya
Author(s): Birendrakumar Bhattacharya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 256
________________ "शइकीयानी से कहो, ज़रा जल्दी करें।" "अभी बताया न ! शइकीयानी अभी तक कलवाली पोशाक में ही हैं । देह पर कम-से-कम एक चादर डाल लेने से भी चल सकता है। अच्छा, मैं अभी आयी. तुम यहीं ठहरो!" रूपनारायण की आँखें जल रही थीं । बनावटी वेश ही अटपटा-सा लग रहा था । और तो और, इस वेश में चहल-क़दमी करना भी मुश्किल हो रहा था । पर और उपाय भी तो नहीं था। यही तो जीवन है। उसने कमरे में एक बार चारों ओर नज़रें दौड़ायीं । देखा कि बिछावन तले एक महीन रंगीन रेशमी रूमाल पड़ा है । उसमें एक फूल भी काढ़ा गया है। उसने लपककर उसे उठा लिया। रूमाल से उठती हुई सेण्ट की गन्ध पा उसे लगा जैसे वह प्रेम की निशानी हो । यह भी तो हो सकता है कि इसे आरती ही जान-बूझकर यहाँ डाल गयी हो । तभी उसकी सारी मनोवेदना छूमन्तर हो गयी । उसने अनुभव किया कि यह रूमाल मानो अनन्त प्रेम का पंख है जिसके सहारे वह उस प्रेम-लोक तक उड़कर जा सकेगा, जहाँ आरती को वह एक बार फिर पा सकने में समर्थ होगा । धत्, वह क्या सोचने लगा । यह तो मानो जन्मान्तरवाद का सूत्र है । ग़लत, बिलकुल ग़लत, वैसा कुछ भी नहीं होता है। यह सब तो कल्पना है, मात्र कल्पना । तभी अनुपमा अन्दर आ गयी और मुसकराती हुई बोली : "पटेश्वरी ! चलो । पुलिस अफ़सर मेरी जान-पहचान का ही है। सिलहट का है । गाड़ी तक साथ में केवल मेरे जाने से ही काम बन जायेगा । मैं ही तुम्हें गाड़ी में बैठा आऊँगी। कोई नहीं भाँप सकेगा । भाग्य की बात समझो !" I "तब शइकीयानी के जाने की ज़रूरत भी नहीं रहेगी ।" "हाँ, फिर उनकी जरूरत नहीं होगी ।" "मैं भी यही सोच रहा था कि वह तो कन्या की माँ हैं, भला कैसे जायेंगी ?" दोनों बातें करते हुए पोर्टिको तक निकल आये । कुछ ही क्षणों में, गाड़ी के स्टार्ट होने की आवाज़ हुई और फिर उसके बाद सन्नाटा छा गया। पुलिस तब भी घर के चारों ओर तैनात थी। नाटक ख़त्म हो चुका था । 'दैयन' की तैयारियाँ होने लगी थीं । हो उठा था । वह शकीया के घर में एक क्षण हँसती हुई वह धीरे-धीरे अपने घर की ओर क़दम बढ़ा रही थी । पर अनुपमा को भी नहीं रुकी। 252 / मृत्युंजय वह सब असह्य अपने भाग्य पर

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