________________
चुका है, उसे प्रभु की इच्छा ही समझिये।"
इसी बीच डिमि भी वहाँ आ गयी। उसने संकोच से पूछा।।
"गोसाइनजी, चाय बन चुकी क्या ! लौटने के लिए मुझे अभी सवारी भी खोजनी है। जल्दी कीजिये । यह कौन है ?"
फिर टिको को गौर से देखकर ख द ही बोली, "हाँ, समझ गयी। अपने ही दल का आदमी है न?"
"हाँ ।" गोसाइन ने कहा । “बेचारा पुलिस के डर से भाग-छिप रहा है।" "कहाँ जाओगे?" डिमि ने पूछा। "पुरणि गोदाम तक।" डिमि को हंसी आ गयी थी। बोली :
"तुम मर्द होकर भी डरते हो ! मेरे साथ चलोगे? हयबरगाँव स्टेशन तक पहुंचा दंगी । वहाँ से रेलगाड़ी में बैठकर चले जाना।"
"चारों ओर पुलिस है।" टिको ने सहमते हुए कहा।
"इसकी चिन्ता मत करो । अमलापट्टी से निकलकर कलङ पार करते हुए हयबरगांव पहुँच जाओगे, बस । उधर खेतों के किनारे-किनारे सीधे नहीं जा सकोगे क्या ?"
टिको ने गोसाइन की ओर देखा। वे स्वयं उधेड़-बुन में पड़ी थीं। लग रहा या जैसे उसके चले जाने पर ही उन्हें तसल्ली होगी। टिको समझ गया कि गोसाइनजी उसे यहाँ अधिक देर तक आश्रय नहीं दे पायेगी। फिर यहाँ रात तक रहना भी संकट से खाली नहीं हैं । इसलिए उसने डिमि से कहा :
__"चलो, तुम्हारे साथ ही चला जाऊँगा । तुम साथ रहोगी तो कोई अधिक ध्यान भी नहीं देगा। और फिर गिरफ्तार हो ही गया तो किया क्या जा सकता
गोसाइन रसोईघर के अन्दर जाकर दो कटोरियां ले आयीं। उसे दोनों के हाथों में थमाते हुए फिर अन्दर चली गयीं। एक बड़े बर्तन में चाय लाकर दोनों की कटोरियों में डालते हुए उन्होंने पूछा :
"कुछ खायेगी डिमि?" "हाँ, कुछ हो तो दीजिये न ! खाली चाय कैसे पीऊँ ?" "मेरा पेट भी कुछ माँग रहा है।" टिकी भी बोल पड़ा।
गोसाइन कुछ केले और थोड़े-रो पिलापिठे ले आयीं। उन्होंने दो हिस्सों में करके केले के पत्तों पर दोनों को अलग-अलग दे दिये । टिकौ एक खम्भ से टिककर केले छीलने लगा । डिमि रसोईघर के दरवाजे के पास ही बैठकर चाय पीने लगी। इसी बीच गोसाइन भी अन्दर से पनबट्टा उठा लायीं और पान बनाने लगीं। चाय पीते-पीते डिमि बोली :
मृत्युंजय | 259