Book Title: Mrutyunjaya
Author(s): Birendrakumar Bhattacharya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 245
________________ रूपनारायण मुसकराया । सोचने लगा : यदि आन्दोलन में सक्रिय नहीं होता तो इस दरवाजे पर कल मैं ही दुल्हा बनकर आया होता। लेकिन आज मुझे चोर की तरह यहाँ आम के पेड़ तले प्रतीक्षा करनी पड़ रही है। क्या मैं सचमुच दिगम्बर हो गया हूँ ? योगी हूँ ! आरती ने कोई ग़लती नहीं की। मुझसे भी कोई भूल नहीं हुई है । प्रिय वस्तु का त्याग नहीं करने पर सिद्धि नहीं मिलती है। मुझे भी अन्तर्मन से आरती का परित्याग करना ही चाहिए। रचकी मछुआरिन से विवाह का समाचार पाने के बाद से ही मेरे मन में एक अन्तर्द्वन्द्व हो रहा था। पर वाकई मेरा मन चाहता क्या था? क्या श्रीकृष्ण की तरह ही रुक्मिणी को अपहरण करके मैं आरती को ले जाता? वास्तविक जीवन और उन पुराण-कथाओं में कितना अन्तर होता है ? हाँ, आरती अगर रुक्मिणी की तरह होती तो कोई बात ही नहीं थी। किन्तु वह स्वयं रुक्मिणी तो बनी नहीं। रुक्मिणी होने पर वह किसी वेदनिधि को हमारे पास अवश्य भेजती। या फिर वह माता-पिता की बात स्वीकार न कर आन्दोलन के पूरे होने तक मेरी बाट जोहती। उसने कुछ भी तो नहीं किया । सच तो यह है कि आरती इस आन्दोलन का तात्पर्य ही नहीं समझती है। माता का स्नेह यानी इस विशाल हृदयवाली माता, धरती माता का स्नेह क्या होता है, इसे वह समझने लायक अभी शायद है ही नहीं। अभी यह उसके लिए 'माँ' यानी बच्चे को गोद में उठाकर केवल लालन-पालन करनेवाली रक्तमांस की बनी नारी भर है। माँ के व्यापक अर्थ और स्नेह को वह समझ पाती तो शायद वह विवाह-वेदी की ओर कदम भी न बढ़ाती। यह भी सच है कि केवल आरती ही वैसी नहीं है। गोसाइन भी इस व्यापक अर्थ को समझकर स्वयं को नहीं समझा पा रही हैं । अनुपमा भी नहीं समझ सक रही है। मर्दो की तरह औरतें होती ही नहीं। फिर इस आन्दोलन से वे सब प्रत्यक्ष जुड़ी भी तो नहीं हैं ! नहीं, नहीं, बात ऐसी नहीं है। नहीं तो कॅली दीदी कैसे आ गयीं, डिमि कैसे निकल आयी ? अनुपमा से भी तो मैंने पूछा था'महिलाएँ भी तो हमारी तरफ़ ही हैं न ?' लेकिन अनुपमा ने कोई उत्तर नहीं दिया था। क्यों? क्या महिलाओं को स्वाधीनता नहीं चाहिए ? __ रूपनारायण का हृदय कचोट आया। उसकी आँखों में आँसू छलक आये । उन्हें स्वाधीनता क्यों नहीं चाहिए ? स्वाधीनता चाहिए, अवश्य चाहिए। गाँवों में रतनी के समान भी तो महिलाएं हैं। भोगेश्वरी और कनकलता कहाँ की थी ? नहीं, नहीं होने का कारण क्या है ? अपना ही दोष है। समाज ने महिलाओं को सुविधा ही क्या दी है ? इसलिए उन्हें रूढ़ियों को छिन्न-विछिन्न करना मुश्किल हो रहा है। जब तक हमारी महिलाएं आगे नहीं आतीं, तब तक समाज कुसंस्कारों में इसी प्रकार जकड़ा रहेगा। उन्हें यह सारी बातें समझानी पड़ेंगी। मृत्युंजय | 241

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