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की ओर निकल आयीं। उनमें से एक, हाथ में लैम्प लिये आगे-आगे चल रही थी । उसके पीछे-पीछे वे और सभी बातें करती हुई बढ़ रही थीं। एक ने कहा :
" गीत कैसा जमा ?"
"देउति की माँ की तरह किसी ने नहीं गाया । उसे तो सारे ब्याह गीत याद हैं," लैम्प लिये महिला ने उत्तर दिया ।
" अरे देउति की माँ को कुछ अक्ल भी है ?" दूसरी ने बात जड़ दी । “देखो तो भला कन्या - स्नान पर 'अधिवास' गीत छेड़ बैठी। देखा नहीं, आरती की माँ मुँह भी नहीं खोल पा रही थी।"
" किस गीत की बात कर रही है तू," तीसरी महिला ने पूछा ।
"अरे वही गीत जिसका मुखड़ा कुछ इस तरह से शुरू होता है :
द्वारका में कृष्ण है री सखि छह महीने की बाट । कुण्डल में हैं रुक्मिणी री शशि करे उत्पात "
कन्या भी तो बिदक गयी थी। वह तो मैं थी जो उसे सँभाल रखा था ", उसने उत्तर दिया । अपनी हँसी न रोकते हुए भी वह फिर बोली :
" मुँहफट हूँ न ! बिना कहे मुझसे रहा ही नहीं जाता। उसके मन को मैं खूब समझती हूँ । एक साथ ही पढ़े हैं। खेले हैं, घूमे हैं। पहले वह स्वयं भी समझ नहीं पा रही थी । आख़िर जब अपने भावी पति को उसने देख लिया, तब कहीं उसकी तरफ शायद मन ढल गया। बात भी तो ठीक ही है । एक है शिशुपाल और दूसरा था श्रीकृष्ण । "
" किसकी बात कर रही हो ?" तीसरी ने पूछा ।
"क्यों बन रही हो ? और जैसे कन्या की हालत तुमने देखी ही नहीं थी, है न ?' "अच्छा, तो उसी रूपनारायण के बारे में कह रही हो। बहुत ही अच्छा लड़का था । पता नहीं, इस देवकन्या को छोड़कर कहाँ भटक रहा है ?”
एक महिला ने गम्भीर स्वर में कहा :
"अरी, अब हर जगह ऐसी बातें मत करना। पहले शइकीया वॉलण्टियर का नाम भी नहीं सुनना चाहता था। पर अब, जब रूपनारायण का नाम सब जगह उजागर हो गया है, तब कहीं उसकी आँखें खुली हैं। पर अब क्या ? कहावत है न, कि कलाई देखके कंगन, कण्ठ देखके हार और लड़की को देखके ही दूल्हा खोजा जाता है ।"
"जाने भी दे । वह भी तो ठहरा दिगम्बर ही । फूल - सी प्यारी दुलारी कन्या को भला उसे सौंप देता ! किसी जोगड़े के साथ जाने से अच्छा तो विषपान कर लेना ठीक है
.""
आगे की बातें सुनाई नहीं पड़ीं । वे सब अब तक आगे निकल चुकी थीं । लैम्प का क्षीण प्रकाश भर दीख रहा था ।
240 / मृत्युंजय