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की मुसकराहट भी घुल गयी थी । बोलो वह :
"मुझ पर अब भी भरोसा नहीं ? तुम आओ तो सही।"
रूपनारायण अपने को किसी महिला के हाथों छोड़ देना नहीं चाहता था । ऐसी स्थिति में तो और भी नहीं । क़दम बढ़ाने के पहले उसने फिर पूछा :
"शइकीया वकील से भेंट कराने ले जा रही हो क्या?"
"शइकीया तो अभी-अभी बाहर निकल गये हैं। टिको के गाँववाले आकर उन्हें कुछ कह सुनकर साथ लिवा गये हैं। बहुत सारे पकड़े गये हैं। टिको की घरवाली भी पकड़ कर लायी गयी है। जेल के सामनेवाले 'रिज़र्व मैदान' में ही उसने एक बच्चे को जन्म दिया है। उसे भुइयाँ की पत्नी के यहाँ रखवाना है। भुइयाँ की पत्नी भी मोटर लेकर आयी थी । शइकीया को वही ले गयी है । जानते हो कुल कितने आदमी हैं ? चार सौ।" ____ अनुपमा के कथन में किसी प्रकार का उद्वेग नहीं था । इस असाधारण घटना का वर्णन करने में मानो उसे एक प्रकार की अव्यक्त तृप्ति मिल रही थी। उसके निजी जीवन की दुर्घटना की तरह ही किसी भी दुखद घटना का समाचार मिलने पर उसे तृप्ति अनुभव करना शायद अस्वाभाविक नहीं था। लेकिन उसके स्वर में या चेहरे पर प्रतिहिंसा या प्रतिशोध की भावना नहीं थी। घटना को उसने सहज रूप में ही लिया था। मौत पर एकमात्र अधिकार विधाता का ही तो है, किसी आदमी का नहीं । सहज विश्वास की यह सान्त्वना अनुपमा को अच्छी लगी थी। अधिक जंजाल तो रूपनारायण के समान तर्क-पटु व्यक्तियों को ही होता है। वैसे लोग प्रत्येक काम का तार्किक विश्लेषण करते रहते हैं, मानो आदमी के हर काम के पीछे कोई न कोई युक्ति होती ही है।
"तब तो शइकीया से भेंट नहीं हो सकेगी। सम्भव हो तो टिको को ही बुला दो। जल्दी लोटना है।" कहते हुए रूपनारायण ने एक बार फिर घड़ी देखी। - अनुपमा ने कहा, "टिकौ से मेरी भेंट हुई थी। उसे तो अपनी पत्नी रतनी की चिन्ता से ही फुर्सत नहीं है।"
रूपनारायण को गुस्सा आ गया। बोला : "भला अब पत्नी की चिन्ता करने से क्या लाभ होगा?"
अनुपमा मुसकरा उठी। उसकी इस मुसकराहट का भी एक विशेष अर्थ था। बोली :
"अब हर कोई तो तुम्हारी तरह किसी लड़की से पिण्ड छुड़ा नहीं सकता। तुम्हीं थे जो भाग निकले।"
"भाग कहाँ रहा हूँ ?" रूपनारायण ने कुछ अनमने भाव से ही उत्तर दिया। "तो चलो, एक बार आरती से मिल लो।" "क्यों ?" रूपनारायण का हृदय धड़कने लगा।
मृत्युंजय | 243