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गया तो विपत्ति आये बिना नहीं रहेगी," कहता हुआ धनपुर बेड़े की दीवार से टिक कर बीड़ी पीने लगा।
भिभिराम ने सावधान करते हुए कहा, "अब काम की बात पर आ जाओ। जैसा कि मधु ने हमें बताया है, जाते समय हमें डिगास होते हुए पानवारी और पानखेती के बीच रेलवे लाइन के मोड़ तक पहुँचना होगा । तड़के ही कपिली पार करनी होगी। कहीं रास्ते में ही भोजन लेना होगा। मेरी, गोसाईंजी और माणिक वॅरा की गठरियों में कटोरी, हाँड़ी और चावल वगैरह सब हैं ही । जलाने की लकड़ी मिल ही जायेगी, जंगल जो है । नमक और थोड़े-से आलू भी रख लेने होंगे। मैंने डिमि से कह दिया है। वह अभी लाकर दे रही है। दिन में भोजन कब और कहाँ पहुँचने पर होगा यह तय करना अभी बाकी है।"
- पीढ़े पर बैठे भिभिराम ने भी दीवार का सहारा ले एक बीड़ी जला ली। कमरा छोटा था। डिमि और डिलि कोई भी न थे। नोक्मा के यहाँ भोज और नाच में सम्मिलित होने गये हुए थे। आज बँगला उत्सव की आखिरी रात थी। सुबह होने में अब ज्यादा देर नहीं थी। गठरी तैयार रक्खी थी। ढोलक और सींगे का मुर बन्द होने के पहले ही उन्हें यहाँ से कूच कर देना होगा। उत्सव के अन्त तक यह रुका नहीं जा सकता । डिमि के आते ही वे सब चल देंगे । आहिना कोंवर नेपाली बस्ती से मीधे कपिली घाट पर पहुंचेगा। यात्रा की व्यवस्था ऐसी ही की गयी है। ____गोसाई ने मकरध्वज पीसकर खा लिया। थोड़ी देर के बाद वह धनपुर से बोले : "धनपुर, थोड़ी-सी आग जलाओ भाई ! जरा हाथ-पैर सेंक लूं । कैसे ठिठुर गये हैं !"
धनपुर अन्दर गया और वहाँ से कुछ लकड़ियाँ उठा लाया। लकड़ियाँ सूखी थीं। जल्दी हो दहक उठी । गोसाई आँच के पास खिसक आये और पीढ़े पर बैठकर उन्होंने अपने पाँव फैला दिये। साथ ही अपनी छाती भी सेंकते रहे । उन्होंने कमरे के चारों ओर अपनी नज़र दौड़ायी। धनपुर और रूपनारायण की बन्दुके पास ही रखी थीं। नोक्मा भी दो दिनों के लिए अपनी बन्दूकें देने को राजी हो गये हैं । लयराम से छीनी गयी बन्दूक मधु के बिछावन के पास ही पड़ी है। तीनों बन्दूकें भरी हैं। जरूरत पड़ी नहीं कि घोड़ा दबाया और धाँय...! पुलिस कभी भी छापा मार सकती है, इसलिए पूरी सावधानी रखनी पड़ेगी । गठरियाँ बाँध दी गयी हैं और छतछत् छोवा का भोज खाकर सब एकदम तैयार बैठे हैं।
"मैं ऐसा सोच रहा था, धनपुर !" एकाएक गोसाईं बोले । "क्या ?"
"दिन ढलते ही हमें पहाड़ी के नीचे उतरकर फ़िशप्लेटें खोलनी हैं। उन्हें हटाकर हमें फिर पहाड़ी पर चढ़ना होगा । वहाँ से हम फिर कपिली घाट तक
122 / मृत्युंजय