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हुए उन्होंने कहा :
"यदि तुमने अपने मन में सचमुच ही ऐसा निर्णय कर लिया है कि ये गुफाएँ ही हमारा आश्रम होंगी और हम यहीं से अपना काम शुरू करेंगे तो मैं भी तैयार हूँ। लेकिन ऐसी स्थिति में, नेतृत्व का सारा भार भी तुम जैसे युवकों को ही सँभालना पड़ेगा। संभाल पाओगे?"
इस बार रूपनारायण ने गोसाई की बातों को समझने की कोशिश की। उनकी मुखाकृति को परखने की दृष्टि से उस ओर देखा भी। उसे निश्चय हो गया कि गोसाईंजी अपने निर्णय के प्रति समर्पित हैं और उद्देश्य के प्रति कर्मठ । लेकिन जव कोई रास्ता नहीं, उपाय नहीं तो वह विवश हो जाते हैं। जैसे कोई पहाड़ी झरना समतल मैदान या चटियल रेगिस्तान में पहुँचते ही सूख जाता है। उसी तरह उनमें भी नेतृत्व वहन करने की क्षमता छीजती चली जा रही है। उनमें अपने दायित्व और संकल्प को पूरा करने की अद्भुत लगन है, लेकिन कठिन और बदली हुई परिस्थिति में पूरे मोर्चे को कैसे संभाला जाय और शत्रुओं से कसे लोहा लिया जाय, इसका निर्णय वह तुरन्त नहीं ले पाते —जिसकी अभी सबसे अधिक आवश्यकता है।
रूपनारायण ने कहा :
"आपने गुफाएँ देखीं नहीं शायद । एक बार देख तो आइये। दस-पन्द्रह मिनट ही लगेंगे । इसके बाद जो निर्णय लेना होगा लेते रहियेगा। कोई कठिनाई या परेशानी हो तो उस पर भी विचार करेंगे । आप जल्द लोट आइये, आहिना कोंवर हमारे साथ रहेंगे।" ___ "लेकिन, हे कृष्ण, मुझे भी गुफा देखने की इच्छा है ।" आहिना कोंवर ने कहा।
रूपनारायण ने टोका :
"नहीं, सारा सामान यहीं पड़ा है। इसे छोड़कर जाना अच्छा नहीं होगा। और देखते नहीं कि ये अनेक चीजें अभी इधर-उधर फैली ही हैं। बाँस के चोंगे भी ज्यों-त्यों पड़े हैं । आप इन सबको ठिकाने लगाइये ।"
गोसाईजी ने खिचड़ी पकाने और मिल-बैठकर खाने की जगह का अच्छी तरह परीक्षण किया । जहाँ-तहाँ जूठन पड़ी थी। उस ओर किसी का ध्यान भी नहीं गया था। शायद संस्कारवश भी जूठा उठाने में संकोच रहा आया होगा। चोंगे का पानी, जूठे चोंगे, केले की पत्तियाँ जहाँ-तहाँ बिखरी पड़ी थीं। कहीं-कहीं हल्दी और मसाले से जगह रँग गयी थी। टोह लेनेवाले खुफिया पुलिस और मिलिटरीवाले उसे देखते ही सन्देह करेंगे-ऐसा सोचकर ही उन्होंने बन्दूक की नली से जूटे पत्तों और चोंगों को ठेलकर पानी में बहा दिया। फिर एक चोंगे में पानी ला हल्दी और मसाले के दाग़ों को धो डाला। पानी पड़ने से हल्दी का दाग़
140/ मृत्युंजय