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हमारी कलङ की ही जैसी है न ? या फिर ब्रह्मपुत्र की तरह है ? उसके उस पार कैसा है ? वहाँ आदमी हैं या नहीं ? उस पर पुल है कि नहीं ?
गोसाईं की चादर कीचड़ से सराबोर हो चुकी थी ।
और वह पक्षी ? उसकी चंचल दृष्टि सभी दिशाओं को समेट रही थी । गोसाईं ने देखा : धनपुर रिच निकालकर नट-बोल्ट खोलने में जुट गया है । वहीं थोड़ी दूर आगे भिभिराम भी वही काम कर रहा है । रूपनारायण नहीं दिखाई पड़ा । बनानियों को चीरकर उन्होंने एक बार देखने की कोशिश की । उस पार की खाई में पानी है। पानी क्या, वह तो झील है । वहाँ के वन- हंसों का कलरव सुनाई पड़ रहा है । कलरव नहीं, बड़ी करुण और हृदय विदारक है उनकी आवाज । खाई के इस ओर एक छोटा टीला है । टीले पर एक बड़ा-सा दिमीर है । उसी के बग़ल में है एक बड़ी-सी चट्टान । और उसके बग़ल में ही एक और पत्थर । ये सब चिररमणीय खासी पहाड़ी क्षेत्र के ही भाग हैं । उन्हीं पत्थरचट्टानों के बीच मूर्तिवत् अडिग खड़ा है रूपनारायण । उसके इर्द-गिर्द और सिर के ऊपर सभी तरफ़ है रंग-बिरंगी जंगली झाड़ियों का फैलाव । पास ही में है चाँदी जैसा चमकता हुआ एक निर्झर प्रवाह; और झाड़ियों के उस पार, बलि चढ़ाने वाले दाव में लगे रुधिर की तरह ही फैला हुआ है लालिम पश्चिमी क्षितिज । और उनके मध्य सूरज देवी की प्रतीक्षा कर रहे किसी पुरोहित के हाथ में नैवेद्य से सजे ताँबे के थाल जैसा चमक रहा है । सूर्यास्त के पहले की बह ललाई गोसाईं के प्राणों को कॅपा रही थी । उनका जीवन दीप टिमटिमा रहा था, मानो अब बुझा, तब बुझा ।
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रूपनारायण ने अपनी बन्दूक़ का निशाना गोसाईं के निशाने की विपरीत दिशा में साध रखा था । उसने मध के निशाने की ओर देखने की कोशिश की । एक बार थोड़ा सिर उठाकर पास ही छितवन की डालियों की ओर उसने देखा ।
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मध भी उनके बीच लेटा हुआ था । उसकी बन्दूक़ ठीक नीचे की ओर तनी थी । सभी निःशब्द बने थे । गोसाई की इच्छा हो रही थी मुंह में एक पान दबा लेने की, पर आहिना कोंवर को आवाज देने की उन्हें हिम्मत न पड़ी । बुलाने का वह समय भी नहीं था । कोई अलाव के पास की बैठकी या दालान तो था नहीं वह, जहाँ गप-शप करते हुए भी काम निपटाया जाता है । युद्ध भूमि में बातचीत सम्भव है नहीं। देखते हैं तो बस देखते ही रहना पड़ेगा । गोली चलानी हो तो गोली ही चलानी पड़ेगी । इधर-उधर कुछ नहीं किया जा सकता । टस से मस होने पर पराजय की आशंका रहती है ।
वह थी युद्ध-भूमि ।
उन्होंने एक बार फिर पक्षी की ओर देखा : बड़ा सुन्दर है पंछी, पर बिलकुल अनजाना । अपने इस अल्प जीवन में कितनी वस्तुओं को पहचान पाता है मनुष्य ? कुछ ही को तो । जानते - पहचानते ही यह जीवन पूरा हो जाता है । एक
मृत्युंजय / 159