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हो चुकी थी। बार-बार प्रयत्नपूर्वक दबायी गयी खांसी अब रोकने पर भी रुक नहीं रही थी । दिमाग़ भी काम नहीं कर पा रहा था । सहमते हुए बोले :
"दधि, थोड़ी आग सुलगा दो । इस देह में अब कुछ बच नहीं रहा है। कह नहीं सकता कि आत्मा किस क्षण देह का साथ छोड़ दे, कब प्राण-पखेरू उड़ जाये ।"
दधि कुछ चिन्तित-सा हो गया । समझ नहीं पड़ रहा था क्या किया जाये । बोला :
"आग जला तो सकता हूँ, किन्तु अभी आग जलाने का मतलब होगा शत्रु को निमंत्रित करना । "
"हाँ, सो तो है," गोसाईं ने कहा । "किन्तु मुझसे अब एक डग भी चला नहीं जा सकता । तुम लोग मुझे यहीं छोड़कर चले जाओ ।"
" आपको कैसे छोड़ा जा सकता है, गोसाईं प्रभु ?" रूपनारायण ने कहा । "इससे अच्छा तो यही होगा कि हम सब गुफा तक चलें और वहीं आग जलायी जाय । वहाँ रहने पर
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रूपनारायण की बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि आधएक मील की दूरी पर से आती हुई कुत्ते की भौं-भौं सुनाई पड़ी । रूपनारायण, दधि और गोसाईतीनों के कान खड़े हो गये । कुछ देर तक उन सबकी समझ में कुछ भी नहीं आया । तीनों चुप्पी साधे वहीं खड़े रहे। तभी रूपनारायण के मन में बिजली की तरह बात कौंध गयी । बोला :
"मैं समझ गया । रोहा थाने में शइकीया के शियन कुत्ता है। शायद वही हो । अब तो यहाँ "भागने के लिए केवल एक ही रास्ता है ।
से
पास एक बड़ा डरावना अलसेइसी क्षण भागना होगा !" ..." दधि इतना कह ही
और "
पाया था कि रूपनारायण भी झुंझला उठा :
"कोई न कोई रास्ता तो निकालना ही पड़ेगा। नहीं तो हम सब अनायास ही पकड़ लिये जायेंगे । और कोई बात नहीं । चलो, चल दें"
.."
दधि ने विचारकर कहा, "गुफ़ा के पासवाले झरने से होकर सीधे आगे बढ़ जाने पर कल तक पहुँचा जा सकता है। उसके आगे एक बड़ा-सा जलाशय है । दूसरी ओर मिलिटरी वाले भरे पड़े हैं इसलिए वहाँ से कलङ के किनारे-किनारे ही हमें आगे बढ़ना होगा । पर जायेंगे कहाँ ? लगता है कि हम लोग जाल में फँस चुके हैं।"
"गोसाईंजी, तब तो कोई उपाय नहीं दीखता ।" रूपनारायण अधीर हो उठा । आवाज़ भी भर्रा गई थी ।
"एक उपाय है", गोसाईं ने कहा । "तुम लोग मुझे छोड़कर चले जाओ । दधि जिस रास्ते की अभी चर्चा की, उसी पर चलकर कलङ तक पहुँच जाना ।
184 / मृत्युंजय