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"तुम औरतों का भी अजीब स्वभाव है । आन्दोलन में जहाँ जिन्दगी-मौत का खेल चल रहा है, तुम्हें ब्याह की बात ही छेड़ने की सूझी? बेचारे को भर पेट खाने भी नहीं दिया। हाँ, एक लोटा पानी दे !"
रतनी को खेद हुआ, पर अपने दोष को छिपाते हुए बोली :
"ज़रूरी लगा सो पूछ लिया। कल ही का तो ब्याह है। यदि आज नहीं तो और कब बतलाती ?"
"आपने बताकर ठीक ही किया, भाभीजी।" रूपनारायण ने कहा, "वह नासमझ अब भी मेरे बारे में सोचती है, यह जानकर मुझें जितना आनन्द हुआ उतना ही दुःख भी । आप ही बतलाइये, मैं क्या करूँ! वकील साहब शइकीया को मैंने थोड़े दिन और रुक जाने को कहा था। पर मेरा भविष्य ही क्या है ? मेरे लिए वह भला क्यों रुकते ?"
"वह लड़की अच्छी है । अच्छी नहीं होती तो वह कभी की भूल गयी होती।" रतनी ने अधीर होते हुए कहा।
टिको को यह सब अच्छा नहीं लग रहा था। झड़पकर बोला :
"अच्छा, अब चुप भी होगी। जा कुदाल निकाल ला। हम लोग आज शहर जायेंगे। मेरी वीणा भी निकाल लाना । एक वही रास्ता है, पर जाऊँ कैसे ! लुकते-छिपते ही जाना पड़ेगा । जो जेल में लूंस दिये गये हैं, उन पर मुकदमा चल रहा है। शहर में जाकर एक वकील खोजना है। लौटने में देर भी हो सकती है।" रतनी के बिलकुल पास आकर उसने धीरे से समझाया : ____ "ज़रा सावधान ही रहना । अगर जरूरत पड़ जाय तो बरठाकुर को बता देना।" ___रतनी इस बार लजा गयी। वह बाहर निकल आयी। कुदाल निकालकर उसने आँगन में रख दी और वीणा को अपने मरद के हाथों में थमा दिया। ___ इसी समय बाहर सड़क पर गाड़ी रुकने की आवाज सुनाई पड़ी। रतनी जल्दी-जल्दी आयी। बोली :
"वे आ ही गये।"
"आ गये ?" क्षण-भर के लिए वह जैसे विह्वल हो उठा। फिर सावधान होकर बोला :
"चल रूपनारायण ! जो होगा, देखा जायेगा।" "घर के पिछवाड़े से ही निकल चलें।" रूपनारायण ने कहा। एकाएक रतनी को बरठाकुर की बात याद आ गयी । बोली : "बरठाकुर के पिछवाड़े से क्यों नहीं निकल जाते ? मैं पुकारकर कहे देती हूँ।"
टिको ने मना किया, "चिल्लाओ नहीं, बरठाकुर के पिछवाड़े का रास्ता मुझे मालूम है। तू पहले दोनों थालियाँ तो उठा ले । हम चलते हैं।"
मृत्युंजय / 227