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"हाँ, हैं।"
"मैं सोनाई पार करते ही अपने किसी आदमी को वहाँ भेज दंगा। इधर का रास्ता बहुत ख़तरनाक है । उन्हें दूसरे रास्ते से लाना था।"
किधर से लाना था, यह रूपनारायण को पता न था।
टिको को आशंका थी कि पुलिस पन्द्रह मिनट के अन्दर ही आ धमकेगी। वह रात को ही घरों पर धावा बोलती है, जब घरवाले घरों में नहीं होते।
सामने एक गड्ढा था। टिको ने उसे पार करते हुए कहा :
"बस, इसे पार कर जाओ। इसके बाद शइकीया के बाप की भी मजाल नहीं कि हमें पकड़ ले।"
रूपनारायण उसकी बात मानता गया। टिको बताता जा रहा था :
"अब तो इस अंचल में भी आन्दोलन बहुत तेज हो गया है । कुरुबावाही के प्रभु से लेकर टिको ग्वाल तक ऐसा कोई नहीं जो इसकी आग में कूद न पड़ा हो। बेवेजीया, कुजीदाह, बामुनगाँव, क्षेत्री, चाकोलाघाट, खाटोवाल, करचोङ, आइ. भेटी, राइडङीया, हजगांव-सभी जगह जनता जाग उठी है। दुधमुंहे बच्चे भी मिलिटरीवालों को टिटकारी मारने लगे हैं। इतना ही नहीं, हमारे साथियों ने परसों ही शइकीया के घर में घुसकर उसके आँगन में हल जोत दिया था।
रूपनारायण ने अन्यमनस्क होकर कहा : __ "तुम अपनी ही सुनाते जाओगे कि मेरी भी सुनोगे । भूख लगी है, भाई ! खाने-पीने की कुछ व्यवस्था है ?"
"खाना अब मिलेगा भी कहाँ ? सोनाई पार होने के बाद देखा जायेगा।" दोनों गड्ढे के किनारेवाले रास्ते पर आगे बढ़ते जा रहे थे।
बाँस की झोपों को भेदकर आनेवाली चाँदनी रास्ते पर बिछल रही थी। रूपनारायण का हृदय ऐसी धरती माँ के प्रति नत हो गया। लेकिन यह नमन वैसा नहीं था । जैसा सत्र के गोसाईं के प्रति उनके शिष्यों का होता है। इसमें एक प्रकार की वेदना भी थी। गोसाईंजी और धनपुर दोनों अलग-अलग कोटि के हैं। एक बन्दूक उठाता है रो-धोकर और दूसरा घोड़ा दबाता है गिनती कर। गोसाईजी ने एक प्रकार से आत्म-बलिदान ही किया, और धनपुर-उसने तो हंसते-हँसते ही प्राणों की आहुति दी है। पर यह तीसरी कोटि किस प्रकार की है ? ये क्या यह सोचते हैं कि देश का ऋण चुकाने के लिए मर जाना है या यह सोचकर ही प्राण दे रहे हैं कि सगे-सम्बन्धियों के ऋण चुकाने हैं। वाक़ई आँख होते भी ये अन्धे हैं। तनिक भी विवेक नहीं रखते । जयराम और टिको जैसे व्यक्ति यह नहीं समझते कि केवल हत्या कर देने से ही काम सिद्ध नहीं होता है।
रूपनारायण यही सब सोचता हुआ चल रहा था कि टिकी ने अपनी बात आरम्भ कर दी:
212 । मृत्युंजय