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'डिमि, डिमि, डिमि... "
थोड़ी देर बाद उसने महसूस किया कि उसके बालों को कोई सहला रहा है । सहलानेवाले हाथ कुछ कठोर से लगे । "कौन ?"
"मैं हूँ रूपनारायण ।"
कष्ट में कराहते हुए धनपुर ने कहा :
"रेल उलट गयी । मैंने आवाज़ सुनी थी । कौन मरा, कौन बचा, ज़रा इसके बारे में बताओ न !”
"मैं और दधि, दोनों आ गये हैं । गोसाईंजी वहीं रुक गये थे ।"
"क्या ?"
रूपनारायण ने धनपुर के पास बैठ सारी घटना को विस्तारपूर्वक बता दिया। अन्त में बोला :
गोसाईंजी की गोली की आवाज भी सुनाई पड़ी थी। दोनों ओर से काफ़ी देर तक गोलियाँ चली थीं। लगता है गोसाईंजी अब जिन्दा नहीं हैं ।" " तो गोसाईंजी भी चले गये ।" धनपुर की व्यथा दुगुनी हो गयी । "हाँ ।"
"तुम सब डटे रहना, हिम्मत न हारना । नाव को अन्त - अन्त तक खेते जाना ।"
" ज़रूर । मैं अब और नहीं रुकूंगा । बस यही अन्तिम भेंट समझो ।” इतना कह रूपनारायण ने धनपुर का मुख चूम लिया। क्षणभर रुककर इतना ही पूछा : "डिमि आयी थी ?"
"ॐ हूँ ।"
रूपनारायण ने उसे एक बार और चूमा और कहा, “हम जा रहे हैं । प्रत्येक क्षण इरादा बदल रहा है । यखिनीखोर छोड़ना पड़ा। तुम्हें गुवाहाटी भी न पहुँचा सका । गोसाईंजी तो अब हमको छोड़ ही गये हैं। पता नहीं उन लोगों ने बन्दूकें कहाँ रखी हैं ? हमें भी कुछ बन्दूकें छोड़ जानी चाहिए थीं।"
"हमारी बन्दूकें मधु ले गया है । तुम सब इन्हें कहाँ रखोगे " धनपुर ने
पूछा ।
"सवेरा होने तक तो साथ ही रखेंगे। फिर मौक़ा पा इन्हें कहीं छिपा दूंगा ।" "फिर ?"
" फिर हम सभी साथी कहीं एकत्र होंगे ।" रूपनारायण ने उच्छ्वास छोड़ते हुए कहा ।
"अच्छा, अब जाओ। सुबह होने में देर भी कितनी सी रह गयी है !" रूपनारायण खड़ा हो गया । धनपुर के निकट से धीरे-धीरे चलकर वह पेड़
190 / मृत्युंजय