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भला इन सब पर जुल्म क्यों ढा रही है। अब तक लोग जंगल में इधर-उधर छिप चुके होंगे। डिमि के घरवालों पर भी भीषण अत्याचार ढाया होगा।
डिमि ! डिमि ! ! डिमि
कहीं उस पर तो कोई कहर नहीं ढाया गया। वह अकेली ही शहर गयी थी। अकेले लौटते कहीं...
डिमि ! डिमि ! धनपुर चीखना चाहता था। चीख़ न पाया । कोशिश करने पर भी वह अपना सिर नहीं उठा पाया । बेर के पेड़ से सटकर उसकी देह मानो उस जैसी ही हो गयी थी। उसकी क्षीण पड़ती हुई चेतना में आस-पास की चीजें भी अब बहुत दूर की लगने लगी थीं, किन्तु तब भी संसार से उसका सम्बन्ध विछिन्न नहीं हुआ था । हाँ, विच्छिन्न होने में अब अधिक देर नहीं थी। मौत कितनी सहज होती है ! कामपुर की एक झोंपड़ी में उसका जन्म हुआ था और मर रहा था वह गारोगाँव के उस जंगल में। इनके बीच के कुछ दिन ही उसके जीवन के रहे । इस थोड़े-से जीवन में ही ये सारे झगड़े-टण्टे । सब कुछ सोचने पर बड़ा आश्चर्य होता है । स्वाधीनता चाहिए-गोरे साहबों के साथ काले भारतवासियों का युद्ध !
वेदना, असीम वेदना । डिमि ! डिमि !
टॉर्च की रोशनी धीरे-धीरे और निकट आ गयी। इस समय रोशनी भी असहनीय लग रही थी। एकाएक लगा जैसे गज़ भर की दूरी पर ही कई लोग आकर ठमक गये।
उनमें से एक बोला : “हाँ, इधर ही गया होगा।" तभी दूसरे ने ज़रा गम्भीरता से कहा : "चूहा जाल में फंस गया है। अब जायेगा कहाँ ?" "अरे एक वही मिल जाये तो काम बन जाये", पहलेवाला बोल उठा। "कौन ?" “वही, जिसका नाम धनपुर है । उसके मिलने से ही..." पहले ने उत्तर
दिया।
"हाँ, अगर वो पकड़ में आ जाये तब कोई बात बने ।"
धनपुर समझ चुका था कि ये कौन लोग हैं। पहला था लयराम और दूसरा शइकीया । इन दोनों की आवाज़ से ही वह पहचान गया था। उसे हँसी आ रही थी : पास ही में तो पड़ा हूँ, पकड़ क्यों नही लेते ! किन्तु अब पकड़कर भी कुछ कर नहीं पाओगे। धनपुर अब धनपुर नहीं रह गया है । वह तो अब हाथ-पैर कुछ भी नहीं हिला पाता । हाँ, यदि तुम मुर्दाखोर हो तो और बात है !
अब भी वे टॉर्च से सब ओर देख रहे थे । अचानक रोशनी बेर के पेड़ के तने
मृत्युंजय | 193