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"गांधीजी ने जो युद्ध छेड़ा है वह केवल आदर्श के लिए ही है । पर वस्तुतः हुआ क्या है, स्वयं खुली आँखों से देख लीजिये न ! गांधी की तरह ही साहसी हो अहिंसक सैनिक बनना सभी के लिए सम्भव नहीं है इसलिए हमने जो कुछ किया है, भारत को स्वतन्त्र करने के लिए। इसके सिवा और कोई दूसरा मार्ग नहीं है ।"
गोसाई ने कुछ नहीं कहा। हाँ, यह सच है कि उनकी इतिहास - चेतना उतनी प्रखर नहीं है ।
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गोसाईजी हैं वैष्णव । उनके अन्तर में भी द्वन्द्व है । आदमी के खून से हाथ सना होने के कारण वे अपने विवेक को तनिक भी समझाने में विफल हो रहे हैं । जहाँ जीव, वहीं शिव । परन्तु अभी दुर्बलता प्रकट करने का समय नहीं है । इस समय ज़रूरत है अपनी देह की सुरक्षा की। पहले यह तो चंगी हो जाय । ठण्डक के कारण उसका बुरा हाल हो चुका है और उधर आवश्यकता है व्यूह को भेदकर निकल जाने की । फिर व्यूह भी तो एक नहीं । एक ओर है मिलिटरी और दूसरी ओर इकीया । यहाँ से बच निकलने के बाद ही इन सब पर ठीक से विचार कर पाना सम्भव हो सकेगा । यह सब सोचकर ही वे बोले :
"मैं ऐसा स्वीकार नहीं करता कि अहिंसापूर्वक युद्ध नहीं किया जा सकता । किया तो जा ही सकता है, पर हम नहीं कर पा रहे हैं। हाथ में खून सानकर हमने अपने को कलुषित कर लिया है। इस विषय में अब चुप रहना ही बेहतर है ।" किन्तु गोसाई चुपचाप रह नहीं सके । वे अपने विवेक के साथ अनवरत जूझते हुए ही आगे बढ़ रहे थे ।
आधएक घण्टे में वे चट्टान के निकट पहुँच गये। वहाँ दधि बैठा हुआ दिखाई पड़ा । ठण्डक से उसकी सारी देह काँप रही थी । रूपनारायण और गोसाईजीको आते देख वह खड़ा हो गया । बोला :
"ये तो चले गये । अब क्या करना है ?"
दधि के पूछने का तात्पर्य रूपनारायण तुरन्त ताड़ गया। उसे समझने में भूल नहीं हुई कि दधि ने उन गुफ़ाओं में टिकने के बारे में ही पूछा है । वह बोला; "मेरे विचार से तो यहीं ठहर जाना उचित होगा । जब कुछ ठीक-ठाक हो जाये तभी यहाँ से कहीं और जाना चाहिए। उधर भी शइकीया और उसके साथियों ने जाल फैला रखा होगा। उधर भी बच पाना मुश्किल ही होगा ।"
" गुफा में भूखे-प्यासे ही रुक सकेंगे क्या ?"
"हाँ, यह भी तो एक समस्या ही है । पर किया भी क्या जाये ? ज़रूरत पड़ी तो उपवास ही सही,” कहते हुए रूपनारायण ने इस बार गोसाईजी की ओर देखा ।
लेकिन गोसाईं के देह में इस समय गोसाईं थे ही नहीं। उनकी हालत पतली
मृत्युंजय | 183