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उन्हें उस पक्षी की याद आ गयी । वह जाने कहीं उड़ गया था । सब ओर केवल नीरवता ही नीरवता ! कभी-कभार झींगुरों की झनकार सुनाई पड़ जाती थी । चिड़ियाँ भी शायद सो चुकी थीं । केवल हवा की साँय-साँय ही उस नीरवता को भंग कर रही थी ।
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गोसाईं ट्रॉली के आने की प्रतीक्षा करने लगे । रेलगाड़ी के आने का समय भी हो चला था । अँधेरे के कारण रेल की पटरियाँ वहाँ से अब साफ़-साफ़ नहीं दीख पड़ती थीं। सोचने लगे : ट्रॉली के आदमियों को भी पहचनाने में कठिनाई हो सकती है । यदि वह पाँच-सात मिनट में नहीं आती है तो रूपनारायण को बुला लेना ही ठीक होगा । उसकी प्रतीक्षा में और देर तक रुका रहना ठीक नहीं ।
टार्च जलाकर गोसाईं ने घड़ी पर नजर जमा ली । हाथ मानो यन्त्र बन चुके थे, अपने आप चल रहे थे ।
एक मिनट ।
दो मिनट ।
तीन मिनट और तभी...
"हाँ, ठीक ट्राली को ही आवाज़ है। बड़ी तेज़ी से आ रही है ।" गोसाईं भीतर-ही-भीतर बुदबुदाये। तभी उसकी रोशनी दिखी। रोशनी निकट आती जा रही थी : एकदम निकट । मोड़ पर पहुंचते ही 'धड़ाक्' की आवाज़ हुई । ट्राली उलट गयी थी। दो मिलिटरी जवान धरती पर लुड़क गये थे ।
गोसाईं सँभल-सँभलकर तेजी से आगे बढ़े और बिलकुल निकट यानी मोड़ पर आ गये । नजदीक आते ही उन्होंने फिर टार्च जलायी । देखा कि ट्राली का ड्राइवर लाइन पर निस्पन्द पड़ा है । वह कराह तक नहीं रहा है। शायद उसे काफ़ी चोट आ गयी थी। दोनों जवान जो टार्च से लाइन को देख रहे थे, गोसाईं के सामने पड़ गये । गोसाईं को इस बार निर्णय लेने में कोई विलम्ब नहीं हुआ । 'अभी-अभी, हाँ यही समय है । और रुकना ठीक नहीं ।' और उनका हाथ यंत्र की तरह् चल पड़ा ।
गोसाईं ने पास वाले जवान के सीने को लक्ष्य कर गोली दाग दी, जिसके लगते ही वह एक चीख के साथ वहीं ढेर हो गया । दूसरा जवान गोसाईं को अपना निशाना बना ही रहा था कि उसकी पीठ को भेदती हुई एक गोली निकल गयी । वह गोली चलायी थी दूसरी ओर से रूपनारायण ने । वह भी लुढ़क गया। रेलवे लाइन तब और गाढ़े अन्धकार में विलीन हो गयी ।
यहाँ गोसाई के मन पर छाया हुआ अँधेरा और घना होता जा रहा था । रूपनारायण तुरन्त नीचे उतर आया। बड़ी सावधानी से वह रेलवे लाइन के मोड़ की ओर बढ़ गया । मृत जवानों के पास कुछ क्षण के लिए ठमक उसने आवाज़ दी :
मृत्युंजय / 171