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यह एक और बड़ी समस्या खड़ी हो गयी।
-मिलिटरी-गाड़ी के आ जाने पर भागने के लिए भी समय नहीं मिलेगा। और गाड़ी के फोजी जवान कहीं बच गये तो इधर अवश्य आ धमकेंगे। पास वाले कम्प से मिलिटरी के आने में आधा-एक घण्टा का समय लगेगा। सोच-विचार के बाद उसे लगा कि यहां बीसेक मिनट से अधिक नहीं रुका जा सकता है। उसके बाद तो भागना ही पड़ेगा। तब तक गोसाईजी की थोड़ी देखभाल करना बहुत जरूरी है। पर किया ही क्या जाये! यहां पानी भी तो नहीं है ! अब तो गोसाईजी के मनोबल, उनके साहस पर ही सब-कुछ निर्भर है । अकस्मात् उसके मन में एक विचार कौंध गया। गाड़ी की रोशनी निकट आती जा रही थी। उसने अन्दाज़ लगाया कि गाड़ी को यहाँ तक आने में कम से कम पांच मिनट तो लगेंगे ही। इन पाँच मिनटों में वह गोसाई को अपनी पीठ पर लादकर आगे बढ़ जायेगा। थोड़ी दूर आगे ही तो एक बड़ी-सी चट्टान है । उसके नीचे वहाँ सुरंग भी है। शायद एक झरना भी है। पानी भी वहां मिल सकेगा। गोसाईंजी को निश्चित ही प्यास लग आयी होगी।
बन्दूकें उसने छितवन के पेड़ तले ही छोड़ दीं। उसने गोसाई को पीठ पर लादा और बड़ी सावधानी से टॉर्च जलाते हुए वह चट्टान के पास पहुँचा। वहाँ नीचे की सुरंग में उन्हें छोड़ वह पानी खोजने लगा। सौभाग्य से पास ही गड्ढे में पानी मिल गया। रूपनारायण जैसे अमृत पा गया था। अपनी झोली से कांच का गिलास निकाला और उसमें पानी भर लाया। जल्दी वापस आकर उसने गोसाईं के मुख के सामने गिलास कर दिया । गोसाईं सारा पानी गटा-गट पी गये। कुछ देर तक वह स्थिति पर विचार करता रहा। तभी गोसाई के मुख से हलकी आवाज निकलनी शुरू हुई। कहने लगे :
"तुम बन्दूकें उठा लाओ। जैसे भी हो, तुम जाओ । झोली में सोंठ है। उसका एक टुकड़ा मेरे मुंह में डाल दो।"
सोंठ का एक टुकड़ा गोसाईंजी के मुख में देते हुए रूपनारायण ने कहा :
"हाँ, जैसे भी हो, जाना ही होगा । आप हिम्मत न हारें। मैं बन्दूकें वगैरह उठाकर अभी आया।"
"हाँ जाओ, उठा लाओ।" गोसाईं अपनी सारी शक्ति बटोरते हुए बस इतना ही कह पाये।
रूपनारायण चला गया।
उसके कानों में रेलगाड़ी के आने की 'हड़-हड़', 'छक्-छक्' सुनाई पड़ रही थी।
मृत्युंजय | 173