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उसने पूछा, “धनपुर को क्या हुआ ? कहीं "हे कृष्ण !"
"नहीं, वह जीवित है । किन्तु वह चल नहीं सकता। उसे ढोकर ले जाने के लिए एक स्ट्रेचर चाहिए। जितनी जल्दी हो एक स्ट्रेचर तैयार करो। मैं यहीं हूँ ।"
गोसाई ने फिर घड़ी देखी। अब भी थोड़ा-थोड़ा प्रकाश था ।
उन्हें लगा कि उनका कलेजा एकदम जम गया है, और गला रुँध जाना चाहता है ।
और हिना दो बाँस काट लाये । उनके चार टुकड़े कर लिये । दो लम्बे टुकड़ों को फैलाकर उन पर बाक़ी दो टुकड़ों से छोटी-छोटी कमानी काटकर बिछायीं । फिर बनैली लताओं और कपड़ों से उनके जोड़ों को बाँध - छाँदकर पच्चीस एक मिनट के भीतर-भीतर एक स्ट्रेचर तैयार कर लिया । गोसाईं ने उस पर अपनी अण्डी चादर बिछा दी और कहा :
"आप लोग झोले में रखे कपड़ों को समेटकर एक तकिया जैसा बना दें और इसको धनपुर के पास ले चलें । भिभिराम और मधु उसे गुफा तक ले जायेंगे ।" आहिना कोंवर बोला : “मैं भी तो जा सकता हूँ, हे कृष्ण । कितनी-सी दूर है, हे कृष्ण । भिभिराम यहीं रहे । भगवन्, आप हमारे साथ चलें। आपकी यह हालत मुझसे देखी नहीं जाती, हे कृष्ण ! हाय, आपका यह चेहरा, क्या था और क्या हो गया !"
गोसाईं कठोर होकर बोले :
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"अभी बातों का समय नहीं, कोंवर । जो कह रहा हूँ वही करें। आप भी साथ ही जायें। इन्हें ले जाकर आज रात वहीं गुफा में रुकें। वहीं आप मलहमपट्टी भी कर देंगे । यदि बलबहादुर से सम्भव हो तो रातों-रात नाव से इसे गुवाहाटी की ओर ले जाना होगा । यहाँ इसकी चिकित्सा नहीं हो सकती ।"
गोसाईं खो-खोंकर खाँस रहे थे। उनकी खाँसी उभरती देख आहिना कोंवर झोले से सोंठ का एक टुकड़ा निकालकर उन्हें देते हुए बोला :
" जेब में रख लीजिये, हे कृष्ण, जरूरत पड़ सकती है। और मेरी सौगन्ध, चादर आप स्वयं ओढ़ लें। स्ट्रेचर पर मैं कुछ और बिछाये देता हूँ । मेरे साफा से भी काम चल जायेगा, हे कृष्ण । अब अपनी देह को और कष्ट न दें, हे कृष्ण ।"
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गोसाईं मुसकरा दिये। कोंवर का मान रखते हुए उन्होंने स्ट्रेचर पर से अपनी अण्डी चादर उठा ली। दरअसल सर्दी उनके भीतर तक पैठ चुकी थी । कलेजे पर मानो हिमालय की बर्फ़ ही जमा हो गयी थी । वे थर-थर काँप रहे थे । आवाज़ भी बैठ गयी थी । उन्होंने सोंठ का टुकड़ा मुँह में डाला और चादर ओढ़ ली ।
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गोसाईं ने कड़े शब्दों में फिर याद दिलाया :
"अन्धकारं फैलता जा रहा है। मधु, स्ट्रेचर उठाओ!”
168 / मृत्युंजय