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भाग खड़ी होती । क्या महाकाव्यों में वर्णित घटनाओं जैसी वह हाथों में वरमाला लिये पति का वरण करती ? निश्चय ही नहीं करती। और यदि वह यहीं मर जाये तब वह क्या सोचेगी ? उसकी मृत देह को वह देखने भी आयेगी क्या ?
उसे हँसी आ गयी । इसीको कहते हैं ज़िन्दगी । कभी सुख और कभी दुखकहीं शुभ, कहीं अशुभ |
- कैसे ज़माने में जी रहा हैं वह ! ठीक क़िस्से-कहानियों और महाकाव्यों काही जैसा है यह काल । सिर्फ़ नहीं है आज, वैसी वीरांगनाएँ। और, न ही वैसे कहानीकार । बाक़ी सब कुछ है । यानी वीर हैं । धत्, यह क्या सब सोचने लगा है वह ! बिलकुल अटपटी और असंगत बातें ।
भविष्य में जो बच्चे जन्म लेंगे वे इस रेलगाड़ी के उलटने और स्वाधीनतासंग्राम की बातें सुनकर क्या सोचेंगे? वे निन्दा करेंगे या प्रशंसा ? या भूल जायेंगे इसे ? यह केवल अकेले उसी का नहीं, अन्य सबके भी त्याग का मूल्य है : सारे राष्ट्र के त्याग का । अपना राष्ट्र सही-सलामत रहे, यही सोचकर तो कभी बन्दूक न छूने वाले हाथ भी आज बन्दूक उठा रहे हैं। हमारा ध्यान इस ओर जाये या न जाये, यह और बात है। हाँ, पर इस प्रकार का काम करके मरने में भी सार्थकता है । इतिहास की बात इतिहास ही जाने ।
भिभिराम लगातार हथौड़ी चलाये जा रहा था, फिर भी सफल नहीं हो पा रहा था । उसके हाथ थक चुके थे। उसने धनपुर की ओर निहारा ।
धनपुर ने एक बीड़ी जला ली थी । भिभिराम की हालत देख उसे हँसी ये बिना न रही । वह धीरे-धीरे भिभिराम की ओर बढ़ आया और उसे काम छोड़कर उठ जाने को कहा ।
भिभि मानो कोई नाटक देख रहा था । धनपुर ने उसके हाथ से रिच और हथौड़ी ले ली। पर भिभिराम उठना नहीं चाहता था । यह काम उसी का था, धनपुर के हिस्से का काम तो था ही नहीं । जीवन-मरण का प्रण कर ही तो भिभिराम भी संग्राम में उतरा है। उसने कहा :
"मैं कर लूंगा, धनपुर । तुम्हारा काम हो गयो । तुम भाग जाओ। ऊपर की ओर भाग जाओ !"
धनपुर ने बीड़ी फेंक दी। उसे देखकर वह फिर मुसकराया और धीरे से बोला :
"छोड़ो, तुम हार चुके हो। जाओ, ऊपर चढ़ जाओ। मैं पाँच मिनट में इसे पूरा करके आ रहा हूँ । यह बच्चों का खेल नहीं है । हटो ! अरे उठने के लिए कहता हूँ न, उठकर ऊपर की ओर जाते क्यों नहीं ? तुम्हारी हथौड़ी चलाने की आवाज़ भी अधिक होती है । कहीं गश्ती दल ने सुन लिया होगा तो सब चौपट ही समझो। हटो, जाओ !"
162 / मृत्युंजय