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विषय में मालूम भी नहीं होगा । आप लोगों के दिल इतने कठोर क्यों हैं ?" कॅली की बात का अनुमोदन करता हुआ बोला आहिना कोंवर :
"हाँ, मुझे भी ऐसा ही लगता है, हे कृष्ण ! वह तो शेर की मांद में भी हाथ sted वाला आदमी है। सचाई का पता चलने पर भी तब वह सब कुछ सहन कर लेता । हे कृष्ण, सहने की उसमें ग़ज़ब की शक्ति है। उसे बता देना ही चाहिए हे कृष्ण ।”
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गोसाईं ने कहा, "ठीक है, उसे बताने के लिए अभी समय नहीं भाग गया । पर तुम्हें आने की अभी क्या आवश्यकता थी, कॅली ?"
कॅली कुछ क्षण तक धीर स्थिर दृष्टि से गोसाईं की ओर देखती रही। उसकी आंखों से आँसू झरझरा पड़े । कहने लगी :
"मुझे आशंका थी कि कहीं मेरे प्यारे सपूतों को क्रान्ति के रास्ते से कोई विचलित न करा दे । महात्माजी से भेंट होने के बाद से ही मैं रोज़ सूत कातती हूँ । आज सवेरे भी डिमि के साथ सूत कातकर ही आयी हूँ । कताई में एक भी सूत उलझा नहीं था । तुम लोगों को सूत कातने का अभ्यास है नहीं। तभी तुम लोगों के मन में उलझन पैदा हो गयी, समझे न ! तुम लोगों से कोई भूल नहीं हुई है । बस, अपना काम किये जाओ । यदि मौत भी आ जाये तो उसे भी स्वीकारना । बचकर ही क्या कर लोगे भला ? मैं बूढ़ी हो गयी । फिर भी यदि तुम लोग चाहो तो मैं तुम्हारे साथ चलूंगी। यही सोचकर आयी हूँ । दधि जिस पत्र को लाया है वह कहीं तुम लोगों को उलझन में न डाल दे, मुझे ऐसी आशंका थी । पर अब कोई चिन्ता नहीं है । अपने मन में किसी प्रकार की उलझन न आने देना । मैं सभी की यहीं प्रतीक्षा करूँगी। ख़ासकर धनपुर की । सुभद्रा के बिना उसका जीवन दूभर हो जायेगा, किन्तु मुझे उसकी आँखों के आँसुओं को रोकना होगा ।"
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रूपनारायण ने गोसाईं को एक बार फिर घड़ी दिखलायो । तीनों उस चट्टान के बगल वाले झरने को पारकर ऊपर की ओर चढ़ने लगे और धीरे-धीरे बीहड़ जंगल में ओझल हो गये ।
दधि बहुत देर तक शान्त बना रहा। वह अपने आपको धिक्कार रहा था । लड़ाई के मैदान से भाग आना उसके लिए उचित नहीं था । शायद जीवन के प्रति उसे मोह हो आया था । इस मोह को छोड़ना होगा। उसने बलबहादुर से कहा : "चलो बलबहादुर, गुफा देख आयें। उसके बाद तुम लौट जाना । लौटकर हमारे लिए तुम्हें थोड़ा राशन और हथियार जुटा देने होंगे। कॅली दीदी ने तो कुछ खाया भी नहीं है ।"
बलबहादुर मुसकराते हुए क़दम बढ़ाने लगा । बोला, "इसकी कोई चिन्ता न करें । मैं सब पहुँचा जाऊँगा ।”
मृत्युंजय | 149