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पत्थर पर भी फैल गया । रूपनारायण बोला :
"ये धब्बे आसानी से नहीं मिटेंगे ।"
आहिना कोंवर भी कौतूहल से गोसाईंजी का यह सारा कार्य देख रहा था । कहने लगा :
“हे कृष्ण, गोसाईजी को यह काम भी करना पड़ा। घर पर दूसरे का जूठा न तो आप उठाते और न मैं ही, पर, हे कृष्ण, यह तो विप्लव का समय है । रीति-नीति से यहाँ काम नहीं चलेगा, हे कृष्ण ।" यह कहते हुए उसने बचे हुए एक पत्तल में सारी जूठन बटोर ली और उसे पानी में फेंक दिया।
गोसाईं ने कहा, "आहिना भैया, थोड़ी सावधानी बरतना । ज़रा चौकस ही रहना, हम दोनों जल्द लौट आयेंगे। मेरा मन उद्विग्न है । लगता है कोई बुरी ख़बर मिलेगी । आकाश में गीध भी मँडरा रहे हैं। इधर कौवे भी काँव-काँव कर रहे हैं ।"
गोसाईं की बात पर रूपनारायण को हँसी आ गयी । बोला :
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"नहीं-नहीं, ये जूठन खाने के लिए आये हैं, पर उसे न पा काँव-काँव कर रहे हैं । और गीध - ये तो यों ही उड़ रहे हैं । फिर भी आप सावधान ही रहें कोंवरजी । बन्दूक़ भरी हुई है। आवश्यकता पड़ने पर इसे दागने में चूकेंगे नहीं ?"
" न भैया, गोली छोड़ने से संकट खड़ा हो सकता है । यों सीटी बजाना ही अच्छा रहेगा, हे कृष्ण ।” आहिना कोंवर ने समझाते हुए कहा । इधर गोसाईं अब तक सहज हो आये थे । मीठी चुटकी लेते बोले :
"आपकी श्रीमतीजी सुनतीं तो हँसते-हँसते लोट-पोट हो जातीं । बूढ़े भगत की नादानी और इस मुस्तैदी को देखकर उन्हें ख़ ुशी भी होती । "
हठात् आहिना कोंवर की मुखाकृति गम्भीर हो गयी। रूपनारायण ने उनके चेहरे की ओर देखते हुए पूछा :
"घर की याद सता रही है न ? घर में कौन-कौन हैं ? घर सँभालने वाला कोई लड़का है या नहीं ?"
"यों तो घर-गृहस्थी का जंजाल बड़ा नहीं है,
हे कृष्ण । बड़े बेटे की तीन
सन्तानें हैं। शेष दो भी हल चलाने योग्य हो गये हैं । उनके लिए, हे कृष्ण, चिन्ता नहीं है। हाँ, घरवाली की सेहत अच्छी नहीं रहती है, हे कृष्ण । बारह महीने और तेरह बीमारियाँ, एक न एक व्याधि लगी ही रहती है । वैद्य डॉक्टर कभी लगाया नहीं । हाँ, गोसाईंजी ही कभी-कभार देशी दवाई दे देते हैं, बस और कुछ नहीं । इतने दिनों तक माय में एक दवाखाना भी नहीं बना ।" ठण्डी आह भरते हुए आहिना ने फिर कहा, "कौन जाने, उससे फिर मिलना होगा या नहीं । हे कृष्ण, लगता है अब सुरग में ही मुलाक़ात होगी ।"
बूढ़े की आँखों में आँसू छलक आये ।
मृत्युंजय | 141