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वापस आयेंगे। आहिना हमें रास्ता बतायेंगे। ठीक सात बजे रेल गाड़ी आयेगी । इसलिए हमें छः बजे ही अपने काम में जुट जाना है । मधु पेड़ पर चढ़कर वही से गश्ती दल पर नज़र रखेगा और ज़रा-सी भी आहट हुई तो सीटी बजा देगा । फिशप्लेटें तुम्हीं हटाओगे। रिच, बटाली, हथौड़े वग़ैरह अपनी गठरी में ठीक से रख लेना ।"
"आप एकदम निश्चिन्त रहें । मैं अपने काम के लिए पूरी तरह तैयार हूँ । रिच वग़ैरह रूपनारायण के पास भी हैं । वह भी मेरे साथ ही किसी दूसरी जगह पर फ़िशप्लेटें खोलेगा " - धनपुर के स्वर में दृढ़ता थी ।
"नहीं ।" रूपनारायण ने संशोधन करते हुए कहा, "मैं तुम्हारे साथ फिशप्लेटें खोलने नहीं जा पाऊँगा । मैं बन्दूक़ लिये पटरी पर पहरा दूंगा । हमारे पास बन्दूक़ चलाने वालों की कमी है। इसके लिए भिभिराम तो है ! वह तुम्हारे साथ जायेगा। तुम फिशप्लेटें तो खोल सकोगे, भिभिराम !”
"क्यों नहीं !" भिभिराम ने बीड़ी का लम्बा कश खींचा और कहा, "उन्हें
हटाये बिना बात कैसे बनेगी। मैंने धनपुर से पहले ही सब कुछ सीख लिया है। वह सब तो होता रहेगा, लेकिन तुम्हारे पास रिच, हथौड़ा या दूसरे जो भी औज़ार हैं, अभी मेरे हवाले कर दो। बाद में इन्हें लेने को रुके रहना ठीक नहीं रहेगा ।"
रूपनारायण दो पीढ़ों को जोड़कर लुढ़का हुआ था । मच्छरों की भन भन के कारण इतना परेशान था कि करवट तक नहीं बदल पाया था। कुछ थकावट दूर हो जाये, बस इसलिए पड़ा था । भिभिराम की बातें सुनकर वह तुरन्त उठ बैठा, और रिच, हथौड़ा और बटाली निकालकर भिभिराम को सौंप दीं । भिभिराम ने भी देर न की, उन्हें अपनी गठरी में बांध लिया ।
रूपनारायण फिर लेट गया। उसकी मनोभूमि में हथौड़े ठनक रहे थे । वह पूरी तरह चौकस था - हाथ में बन्दूक़ लिये ।
"बन्दूक़ तो मुझे या माणिक बॅरा को सँभालनी पड़ेगी।" गोसाईं तनिक स्वस्थ हुए। " इस काम के लिए तो मैं ही अधिक उपयुक्त हूँ | बन्दूक चलाना भी जानता हूँ। अच्छा हुआ, सवने अपना-अपना दायित्व अच्छी तरह समझ लिया । भगवान की कृपा रही तो हम अपना काम अच्छी तरह से सम्पन्न कर लेंगे । लेकिन इसके बाद जो कुछ होगा, वह भी लगभग तय ही है। हमें भी उसी आग में झोंक दिया जायेगा। क्यों रूपनारायण ?"
" ठीक ही कह रहे हैं आप। मैं भी यही सोच रहा हूँ ।" रूपनारायण ने लेटेलेटे ही जवाब दिया । " उस काम को पूरा कर लेने के बाद, सकुशल भाग निकलना ही मुश्किल होगा। मायङ की ओर भी नहीं जा सकते । चप्पे-चप्पे में पुलिस और मिलिटरी फैल गयी है। गुवाहाटी की ओर जाने वाला रास्ता दुर्गम
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मृत्युंजय / 123