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छह
भैंस के सींग से बना सीगे का स्वर कभी तेज होता तो कभी मद्धम । कभी कोमल होकर चारों दिशाओं में फैल जाता । कभी-कभी तो लगता कि वह एकदम स्थिर हो गया है ।
अपनी झोली से उबाले हुए शकरकंद, सिंगापुरी केले और कुछ सन्तरे लिये डिम पास ही खड़ी थी ।
ऊपर आसमान में, चाँद अब भी नाच रहा था — गाँव के ओझा की नाई । डिमि की देह भले ही निश्चल थी, लेकिन मन चंचल हो उठा था। सींगे का स्वर उसके मनःप्राण को हिलोरे डाल रहा था । उसकी देह लचीली हुई जा रही थी । धनपुर भी कहीं खोया था। उसके पेट की भूख से मन की भूख कहीं अधिक तीव्र हो उठी थी ।
- कहा भी जाता है कि आत्मा एक महीन धागे में झूलती रहती है । यदि ऐसा नहीं होता तो वह सुभद्रा की देह में कैसे उतर गयी, सुभद्रा की तरह क्यों दीखने लगी उसे ! एक देह का आकार और अनुपात जब किसी दूसरी देह से नहीं मिलता, फिर किसी की आत्मा में किसी और की आत्मा कैसे समा जाती है ?
सींगे का स्वर मन्द हो चला था। फिर वह एकबारगी थम गया । चाँद भी नाचते-नाचते थककर बादलों की ओट में हो गया था । डिमि ने देखा कि धनपुर के साँवले और चिकने ललाट पर पसीने की बूंदें मोती की तरह चमक रही हैं । वह अब और ख़ामोश नहीं रह पायी । उसने तमककर पूछा :
"तुम्हें भूख-प्यास नहीं लगती ? हमेशा किसी-न-किसी काम में डूबे रहते हो | क्या इसी की खातिर तुम्हारा जनम हुआ है ? मैं कब से यह सेब लिये खड़ी हूँ । लोन !"
धनपुर ने झोली में अपने सींगे को डाल लिया । उसने अपनी कमीज़ के निचले हिस्से को दामन की तरह फैलाया और डिमि की सौगात ले ली । वह सेब उदास मन से खाने लगा । बादलों की आँख-मिचौनी से लुका-छिपी करते चाँद को देखकर डिमि ने कहा :
"मेरा देवर भी वहीं कहीं छुपा होगा - वह अब तारा बन गया है । छटपटाते