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fsfa को यह अच्छा ही लगा । आज दो दिनों से वह धनपुर के साथ अकेले में बैठकर शान्तिपूर्वक बातचीत करने का मौका ढूँढ़ रही थी। भगवान आर्णाम आटुम ने आज वह मौक़ा दे ही दिया । उसने संतुष्ट मन से कहा :
"अपने जीजा को बता देना कि हम मेहमानों के पहुँचने के पहले ही पहुँच जायेंगे ।"
fsfम भीतर चली गयी । धनपुर ने झोली से तुरही निकाल ली और उस पर एक बड़ा आह्लादक स्वर बजाया । उसे सुनकर आहिना का हृदय नाच उठा । भिभिराम के कान में फुसफुसाते हुए उसने कहा: “इसे ख़बर मिल जाती तो यह ऐसा स्वर नहीं बजा पाता । विलाप का स्वर ही बजाता, हे कृष्ण । इसके पास गुण तो हैं, लेकिन है अधर्मी । हे कृष्ण, उस उल्लू को मारने का परिणाम क्या होता है, देखना !"
चाय पीते-पीते भिभिराम ने आहिना की बातें सुनीं । बोला फिर :
"उसका मरना अच्छा ही हुआ, कोंवर । इससे सब की आशंका तो दूर हो गयी है। उसने एक ही गोली से हमारी सारी बद्धमूल धारणाएँ समाप्त कर दी हैं । कुछ भी चिन्ता न करें। आपद् - विपद् की चर्चा करने से लाभ क्या है ? विपद् को तो हमने स्वयं आमन्त्रित किया है ।"
आहिना ने कुछ नहीं कहा। वे टकटकी लगाकर केवल चन्द्रमा को निहारते
रहे ।
चाय पी लेने के बाद रूपनारायण और भिभिराम जाने के लिए तैयार हुए। धनपुर से उन लोगों ने कुछ कहा नहीं । असल आदमी वही है। रेल की पटरियाँ उसे ही उखाड़नी होंगी । अच्छा है, वह बाजे बजाकर थोड़ा आनन्द तो मना ले। रूपनारायण बन्दूक़ सँभाले हुए आगे-आगे चला । भिभिराम और आहिना कोंवर उसके पीछे-पीछे हो लिये ।
आश्रम के आँगन में चाँदनी फैलती रही और फैलता रहा तुरही का मादक स्वर । अन्दर बैठी थी डिमि । इसी बीच गौशाला में गाय बछड़े की याद में फिर से रंभाने लगी ।
और आश्रम के छप्पर की ओलती पर गोली लगने से मरा पड़ा दिखाई दे रहा था वह काल — उल्लू ।
98 / मृत्युंजय