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__ "मायङ कैसे चला जायेगा, हे कृष्ण ! अफ़ीम का मज़ा कभी मिला है तुम्हें ? खाने पर देह की पीड़ा दूर हो जाती है, यह मन को हल्का कर देती है और मन तब रथ पर सवार हो स्वर्ग पहुँच जाता है । हे कृष्ण, तुम लोगों की करतूत देखकर अब मुझसे सहा नहीं जाता। चूहे के बिल में घुसा रहे हो गेहुअन साँप को ! भला चूहे के बिल में है क्या, हे कृष्ण ! जाति देने से तो अफ़ीम खाना ही बेहतर है, हे कृष्ण।"
भिभिराम ने उत्तर दिया, "यदि भगवान कृष्ण कुब्जा मालिन के घर भोजन कर सकते हैं, यदि सीता अशोक वन में राक्षसी के हाथ का भोजन खाकर जी सकती है, तो क्या हम डिमि के हाथ का खाकर अपनी जाति नहीं बचा सकते ? सच तो, यह जात-पाँत ही चूहे का बिल है : एकदम घुप्प अँधेरा। इससे हम न निकल सकते हैं, न इसमें घुम ही सकते हैं और ऐसे बाहर साँस भी नहीं ले सकते हैं। फिर आदमी की पहचान तो उसके काम से होती है । अब आप चाहें तो खूब दूध-दही खायें या रूखे-सूखे रहें। यदि गारो गाँव में भोज खाने को मिले तो क्या करेंगे?"
आहिना कोंवर विस्मित हो गये। बोले वह :
"हे कृष्ण, म्लेच्छ के साथ होने से स्वयं भी म्लेच्छ बन जाना पड़ा है। मैं तुम लोगों के साथ अब एक डग भी आगे नहीं जाऊँगा। हे कृष्ण, देखता हूँ कि रेलगाड़ी कैसे उलटते हो। इस मरघट में दुर्भाग्य ही तुम सबको घसीट लाया है,
हे कृष्ण !"
__ भिभिराम मज़ाकिया लहजे में बोला, "धनपुर को अब आना ही चाहिए। 'नहीं जाऊँगा, नहीं करूंगा' कहने पर वह लयराम के समान ही तंग करेगा। आप समझ नहीं रहे हैं कि हम किस संकल्प से यहाँ आये हैं। इसलिए सावधान ही रहें। दो बन्दकें भी लाये हैं वे।"
"कौन ?" आहिना ने पूछा।
एकाएक भिभिराम ने सामने की ओर संकेत करते हुए कहा, "देखिये न, ये दोनों यमदूत नहीं लग रहे हैं ?"
आहिना कोंवर ने पीछे की ओर मुड़कर देखा, दो बन्दुकधारी चले आ रहे हैं। धनपुर की आमड़े-जैसी बड़ी-बड़ी आँखें चांदनी में और भी भयानक लग रही थीं। उसकी मोटी अँगुलियाँ बन्दूक के कुन्दे पर टिकी थीं। उसके भरे-पूरे चेहरे पर भवनमोहिनी हंसी फैल रही थी। आते ही उसने कहा : ___ "आहिना कोंवर ! हम आपको लेने आये हैं । चलिए !"
आहिना कोंवर को गुस्सा भर आया। बोला : ।
"पाखण्डी कहीं के, कहाँ ले जाओगे? हे कृष्ण, मेरी हथेली में आयु अब भी है। मुझे लयराम समझते हो क्या ?"
94 / मृत्युंजय