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फिर खिसक गया था । जूड़ी खुल जाने के कारण बाल भी पूरी तरह बिखरे हुए थे। लेकिन गोसाइन का ध्यान कहीं और था । सुभद्रा की यंत्रणा ही मानो उनकी आँखों के सामने नाच रही थी। उनका मुँह पके अनार जैसा दीख रहा था । यह सब गोसाईं जी को अच्छा नहीं लगा । उन्होंने कराहते हुए टिप्पणी की : "आत्महत्या करके सुभद्रा ने अच्छा नहीं किया । न आगे, न पीछे, वह अकेली ही तो थी । फिर उसने ऐसा क्यों किया ?"
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"मैं भी होती तो यही करती । उसकी देह तो जूठी हो ही गयी थी। उधर से गुज़रनेवाले लोग ऊपर से फ़ब्तियां कसते थे । कमरे से बाहर निकलना तक दूभर हो गया था । अन्ततः धनपुर से आश्वासन पाकर ही उसे थोड़ी राहत मिली थी लेकिन उसके दपारा आने की बात सुन वह पागल सी हो गयी । ओझा ने बताया कि यह किसी दुष्टात्मा के कारण हुआ है । आश्रम के बगल वाला पीपल का पेड़ भुतहा है भी। उस पर भूत और कई दूसरे पिशाचों का वास है। उन्हीं में से किसी एक ने उसे पकड़ लिया होगा । छोड़ता ही नहीं होगा । सरसों पढ़कर झाड़ने का भी कोई नतीजा नहीं निकला । स्वयं ओझा भी चिन्तित हो उठा था । उसे जयराम के पास मायड़ तक पहुँ पाने की भी बात थी । यहाँ झाड़-फूंक करवाना चाहती थीं । अब क्या होगा भला ! इसके पहले ही उसे काल निग़ल गया । अब इस जंगल में वह हिरणी बनकर रहती है । आयु पूर्ण न होने तक वह जायगी कहाँ ? अभी भी संसार का भोग बाक़ी रह गया है न ! इसलिए हुड़दंग तो मचायेगी ही ।" कहते-कहते गोसाइन की देह वैसे ही काँपने लगी मानो उन पर भी कोई भूत सवार हो गया हो ।
यह सब सुनना गोसाईजी को अच्छा नहीं लग रहा था । भूत-प्रेत, मन्त्र-तन्त्र शैतान, ब्रह्म ये सब मन के भ्रम मात्र हैं । मायड में रहते हुए भी उन्हें मन्त्रों पर विश्वास नहीं । हो भी कैसे ? मन्त्र का मतलब हो गया है जादू, मन्त्र का अर्थ हो गया है टोटका । किसकी बलि दी जाये, विवाह - वेदी पर किस दूल्हे को मूच्छित किया जाये, किसकी उम्र घटायी जाये -- यही सब आज इसके विषय हो गये हैं । मन्त्रों से कभी भी मनुष्य की भलाई हुई है ? इससे न खेती में वृद्धि हुई है; न हाट, न बाट, न घाट; कुछ तो नहीं बना है। इससे विदेशी शासन को समाप्त करने में सहायता मिली है क्या ? तभी तो आजकल के पढ़े-लिखे युवकयुवतियों का विश्वास भी इन मंत्रों से हटता जा रहा है । सुभद्रा भूत-प्रेत से आक्रान्त नहीं थी । जैसे सीता एक छोटी-सी लांछना से मर्माहत होकर पाताल में समा गयी थीं, वैसी ही लांछना से आहत होकर सुभद्रा भी आत्मघातिनी बन गयी । गोसाईजी बोले :
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"मुझे इन सब पर तनिक भी विश्वास नहीं है । यदि वह इस छोटी-सी लांछना से मर्माहत होकर आत्महत्या नहीं करती तो अच्छा होता ! कनकलता और
64 / मृत्युंजय