Book Title: Khavag Sedhi
Author(s): Premsuri
Publisher: Bharatiya Prachyatattva Prakashan Samiti

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Page 377
________________ aarसेढी [ गाथा-- १२५ 'गोमुत्तीअ' इत्यादि, गोमूत्रिकया 'प्रतिक्षणं' प्रतिसमयं बन्ध उदये च अनन्तगुणहीना 'हवा' जघन्या - ऽवान्तरकिट्टिर्भवति । इदमुक्त' भवति - किट्टिवेदनाद्वायाः प्रथमसमये क्रोधस्य या मध्यमा अवान्तरकियो बध्यन्ते, तासु या सर्वजघन्याऽनुभाग काऽवान्तरकिट्टिर्भवति, सा प्रभूताऽनुभागका भवति, ततः किट्टिवेदनाद्वायाः प्रथम एव समये क्रोधस्य या मध्यमा अवान्तरकिंट्टय उदयन्ति, तासु या सर्वजघन्यानुभाग कावान्तरकिट्टिः साऽनन्तगुणहीना भवति । ततः किट्टिवेदनाद्वाया द्वितीयसमये बन्धे सर्वजघन्याऽवान्तरकिदिरनन्तगुणहीना भवति, ततोऽपि द्वितीय एव समय उदये सर्व जघन्याऽवान्तरकिट्टिरनन्तगुणहीना भवति, एवं गोमूत्रिकया तावद्वक्तव्यम्, यावत् किट्टिवेदनाद्वायात्मसमयः । यथा गोमूत्रिका वक्राकारेण वामभागतो दक्षिणभागे पतति, दक्षिण भागतश्च वामभागे प्रपतति, तथा जघन्याऽवान्तरकिट्टिरप्यनन्तगुणहीनत्वेन बन्धत उदययुदयतश्च बन्धेऽवतिष्ठते । तेना-ऽनन्तगुणहीनक्रमो गोमूत्रिकोपमया दर्शितः । न्यगादि च कषायप्राभृतचूर्णौ“पढमसमए बंधे जहण्णिया किट्टी तिव्वाणुभागा, उदये जहण्णिया किट्टीअनंतगुणहोणा । विदियसमये बंधा जहण्णिया किट्टी अणंतगुणहीणा, उदये जहणिया अनगुणहोणा । एवं सव्विरसे किट्टोवेदगडाए समये समये णिव्वग्गणाओ जहण्णियाओ विय।" इति । गोमूत्रिका बन्धोदयावान्तरकिट्टीनां जघन्यरसमाश्रित्य चित्रम् రేయింబర్ २४८ ] बध्यमानावान्तरकिट्टयः उ ूउ 00000 ༣ चतुर्थसमयः उदयमानावान्तरकिट्टयः Jain Education International goog तृतीयसमयः 000000 ज००००००० 3 गोमूत्रिकया Sऽनन्तगुणहीनक्रमेण जघन्यावा ०००००००००००००००९ न्तरकिट्टयः द्वितीयसमय: प्रथमसमयः संकेत स्पष्टीकरणम्-ज=जघन्यावान्तरकिट्टिः । उ = उत्कृष्टावान्तरकिट्टिः । ← = एतच्चिह्नमनन्तगुणहीनतामा वेदयति । १ = एवमग्रेऽपि बन्धोदयो मूत्रिकाऽनन्तगुणहीनक्रमेण तत्तत्समयजघन्यात्रान्तर किट्टिर्वक्तव्या । अथाऽनन्तरोक्तगाथया प्रतिपादिताया मोहनीयाऽनुभागानामनुसमयापवर्तनायाः फलं दर्शयति- 'णासह ' इत्यादि, तत्र 'संग्रह किट्टीनां' द्वादशानां संग्रह किट्टीनामुपरितनाऽसङ्ख्यांश 'नाशयति' विघातयति, किङ्किवेदना प्रथमसमये द्वादशसंग्रहकट्टीनां तीव्रानुभागका असंख्येयभागमा अनन्ता अवान्तरकिट्टी रपवर्त्य नन्दानु नागकाऽवान्तरकिट्टिस्वरूपेण स्थापयतीति तात्पर्यम् । अवावि च कषायप्राभृतचूर्णो – “किट्टीणं पढमसमयवेदगो बारसण्हं पि संगह For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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