Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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( २५ ) इस प्रकार उक्त विशेषताओंके साथ अपूर्वकरणके कालको समाप्त कर यह जीव अनिवृत्तिकरणमें प्रवेश करता है । इसका भी काल अन्तर्मुहूर्त है । परन्तु यह काल अपूर्वकरणके कालके संख्यातवें भाग प्रमाण है। यहाँ प्रत्येक समयमें एक ही परिणाम होता है। अन्य वे सब विशेषताएँ यहाँ भी पाई जाती हैं जो अपूर्वकरणमें होती हैं। विशेष स्पष्टीकरण मूलसे जान लेना चाहिए। इस प्रकार अनिवृत्तिकरणके संख्यात बहभागप्रमाण कालके जाने पर यह जीव अन्तरकरण क्रियाके करनेके लिए उद्यत होता है। यदि अनादि मिथ्यादृष्टि है तो एकमात्र मिथ्यात्वको अन्तरकरणक्रिया करता है और सादि मिथ्यादृष्टि होकर भी मिथ्यात्वके साथ सम्यग्मिथ्यात्वको सत्तावाला है तो मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वको अन्तरकरणक्रिया करता है और यदि मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व इन तीनोंकी सत्तावाला है तो तीनोंकी अन्तरकरण क्रिया करता है । जिस समय अन्तरकरण क्रियाका प्रारम्भ करता है उस समयसे लेकर अनिवृत्तिकरणके कालके बराबर स्थिति निषेकोंको छोड़कर उससे ऊपरके अन्तर्महर्तप्रमाण निषेकोंका अभाव करना अन्तरकरण का यहाँ जिन निषेकोंका अभाव कर अन्तर किया जाता है उनसे नीचे अर्थात पूर्वके सब निषेकोंकी प्रथम स्थिति संज्ञा है और उनसे ऊपरके सब निषेकोंको द्वितीय स्थिति संज्ञा है। अन्तरके लिए ग्रहण किये गये निषेकोंका इन्हीं दोनों स्थितियों में निक्षेप होता है और इस प्रकार अन्तर्मुहर्त कालमें अन्तरकरण क्रिया सम्पन्न हो जाती है। यह अन्तरकरण क्रियाका काल एक स्थिति काण्डकघातके कालके बराबर है। इस प्रकार जब यह अन्तरकरण क्रिया कर लेता है तब वहाँसे लेकर उपशामक कहा जाने लगता है । यद्यपि यह अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयसे ही उपशामक है तो भी यहाँसे उसकी यह संज्ञा विशेषरूपसे हो जाती है। इसके बाद जब तक मिथ्यात्वकी प्रथम स्थिति आवलि-प्रत्यावलि प्रमाण शेष रहती है तब तक आगाल-प्रत्यागाल होते रहते हैं। द्वितीय स्थितिके कर्म परमाणुओंका अपकर्षण होकर प्रथम स्थितिमें निक्षिप्त होना आगाल कहलाता है और प्रथम स्थितिके कर्मपरमाणुओंका उत्कर्षण होकर द्वितीय स्थितिमें निक्षिप्त होना प्रत्यागाल कहलाता है। जब मिथ्यात्वको प्रथम स्थिति आवलि-प्रत्यावलिप्रमाण शेष रहती है तबसे मिथ्यात्वका गुणश्रेणिनिक्षेप नहीं होता। (यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता होने पर उनका भी ग्रहण कर लेना चाहिए । ) आयुकर्मके सिवाय शेष कर्मोका गुणश्रेणिनिक्षेप होता रहता है । यद्यपि मिथ्यात्वका गुणश्रेणिनिक्षेप तो नहीं होता, परन्तु उसकी प्रत्यावलिमेंसे एक आवलिकाल तक उदीरणा होती रहती है। जब एक आवलिकाल शेष रहता है तब वहाँसे मिथ्यात्वका उदीरणारूपसे घात नहीं होता। परन्तु जब तक मिथ्यात्वकी प्रथम स्थिति शेष रहती है तब तक उसका स्थिति-अनुभाग काण्डकघात होता रहता है। हाँ प्रथम स्थितिके अन्तिम समयमें मिथ्यात्वके बन्धके साथ उनकी भी परिसमाप्ति हो जाती है। यह अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि जीव है। इसके अगले समयमें यह जीव प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि हो जाता है। यहां दर्शनमोहनीयका उदयके बिना अवस्थित रहना ही उपशम कहलाता है। यहाँ दर्शनमोहनीयका सर्वोपशम सम्भव नहीं है, क्योंकि यहां उसका संक्रम और अपकर्षण पाया जाता है। इसलिए स्वरूप सन्मुख हो यह जीव अन्तरमें प्रवेश करनेके प्रथम समयसे लेकर ही प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि हो जाता है। और जिस समय यह जीव प्रथमोपशम सम्यग्दष्टि होता है तभी मिथ्यात्वके तीन भाग करता है-मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व । इनमेंसे प्रथम दो भाग सर्वघाति हैं और अन्तिम भाग देशघाति है। विशेष विचार मूलसे जान लेना चाहिए। यहाँ इतना विशेष और जानना चाहिए कि उक्त सम्यग्दृष्टि जीवके गुणसंक्रमके काल तक मिथ्यात्वके सिवाय शेष कर्मोका स्थितिधात, अनुभागघात और गुणश्रेणिनिक्षेप होता रहता है।
आगे पच्चीस पदवाला अल्पबहुत्व बतलाकर इस अर्थाधिकारसे सम्बन्ध रखनेवाली १५ सूत्रगाथाएँ दी गई हैं । प्रथम गाथामें बतलाया है कि चारों गतियोंका संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वको उत्पन्न कर सकता है। दूसरी गाथामें चारों गतियोंके उक्त जीवोंका विशेष स्पष्टीकरण किया गया है । तीसरी गाथामें बतलाया है कि दर्शन-मोहका उपशम करनेवाले जीवं व्याघातसे रहित होते हैं। इस क्रियाके चालू रहते हुए उपसर्गादि कितने भी व्याघातके कारण उपस्थित हों, यह जीव इस क्रियाको बिना रुकावटके