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६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
चौदह मार्गणाओं के आश्रय से बन्ध की प्ररूपणा साथ ही मार्गणास्थान के माध्यम से गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, भव्यत्व, लेश्या, दर्शन, उपयोग, सम्यक्त्व, संज्ञित्व, आहारकत्व आदि १४ मार्गणाओं में गुणस्थान और बन्ध की सांगोपांग प्ररूपणा की गई है। जिसे जानकर प्रत्येक आत्मार्थी मुमुक्षु अपनी गति में, अपने योग, उपयोग आदि को सावधानीपूर्वक ठीक रखते हुए आध्यात्मिक विकास कर सकता है।
उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी के मार्ग में बन्धों का विधान आध्यात्मिक ऊर्ध्वारोहण के दो मार्गों के क्रम में, बन्ध के उत्तरोत्तर विच्छेद तथा कषायों की उत्तरोत्तर मन्दता और क्षीणता का सजीव वर्णन भी मुमुक्षु के हृदय में अपने आत्मस्वरूप में स्थिर होने तथा कर्मबन्धों की घुड़दौड़ को रोकने की लहर पैदा कर देता है।
इतना ही नहीं, रसबन्ध और स्थितिबन्ध के द्वारा काषायिक रसों की तीव्रतामन्दता से विभिन्न बन्धों की कालमर्यादा का सजीव वर्णन साधक के मन में आश्चर्य के साथ उत्सुकता पैदा कर देता है। वह बन्धों की विचित्रताओं को जानकर उन बन्धों को शिथिल करने और अन्त में क्रमशः तोड़कर आध्यात्मिक विकास में आगे बढ़ने को उद्यत होता है।
___ पाँच भावों के आश्रय से आत्मिक विकास का दिशासूचन कर्मबन्ध की विविधता बताने के लिए कर्मशास्त्रियों ने औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक, इन पाँच भावों के पृथक्-पृथक स्वरूप बताकर यह स्पष्ट कर दिया है कि किस भाव से बन्ध का सुदृढ़ संयोग होता है, किस भाव से बन्ध होने के बाद उदय में आने से रोककर शान्त रखा जा सकता है, किस भाव से बन्धों का कुछ क्षय, कुछ उपशम रहता है और किस भाव से बन्धों का आंशिक और सर्वांशतः क्षय किया जा सकता है? वह क्षायिक भाव कैसे और कब आ सकता है? और किस भाव से बन्धों से सर्वथा पृथक् रहकर अपने जीवत्व तथा अपने आत्म-स्वरूप में स्थिर रहा जा सकता है ? इस प्रकार कर्मशास्त्र में १. मार्गणास्थान द्वारा १४ गुणस्थानों में १४ मार्गणाओं के आश्रय से बन्ध की प्ररूपणा
खण्ड ८ में देखें। २. उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी के निमित्त से बन्धों के उत्तरोत्तर विच्छेद का क्रम देखें।
खण्ड ८ में । ३. देखें-रसबन्ध और स्थितिबन्ध के विशेष ज्ञान के लिए कर्मविज्ञान खण्ड ७ में २३,
२४वा निबन्ध ।
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