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कर्मबन्धों की विविधता एवं विचित्रता ५ - विविध बंधों की जीवस्थान, गुणस्थान और मार्गणास्थान द्वारा प्ररूपणा
इतना ही नहीं, आगे चलकर चौदह जीवस्थान, चौदह गुणस्थान और चौदह मार्गणास्थानों के माध्यम से किस-किस प्रकार के जीवों में कौन-कौन से गुणस्थान, योग, उपयोग, लेश्या आदि पाये जाते हैं? इसकी भी बन्ध के सन्दर्भ में प्ररूपणा की गई है। गुणस्थान के माध्यम से बन्ध और उसके संयोग-वियोग में सहभागी उदय, उदीरणा और सत्ता का वर्णन किया गया है, जिससे प्रत्येक मुमुक्षु व्यक्ति यह जानसमझ सके कि पहले से चौदहवें गुणस्थान तक कितने और कौन-कौन-से कर्मों का बन्ध होता है, उदय होता है, सत्ता में रहते हैं, और उदीरणा हो सकती है ?? साथ ही यह जानकर मुमुक्षु साधक अपने गुणस्थान से आगे बढ़ने तथा बद्ध कर्मों के सत्ता में रहते हुए ही तप, व्रत, संयम, त्याग, परीषहजय और कषायविजय के माध्यम से बन्धों की स्थिति और अनुभाग को घटा सकते हैं।
पुण्य-पाप कर्मबन्धों की प्ररूपणा अतीव प्रेरणाप्रद
उत्तरकर्मप्रकृतियों के बन्ध के सिलसिले में कर्मशास्त्रियों ने पुण्य और पापकर्म की प्रकृतियों का पृथक्करण करके यह स्पष्ट संकेत कर दिया है कि पुण्यबन्ध एकान्तरूप से उपादेय नहीं है। साथ ही पुण्य-पाप प्रकृतियों की पहचान तथा वे कैसे-कैसे किन-किन कारणों से बंधती हैं? उनके बांधने और भोगने के कितनेकितने प्रकार हैं? आदि तथ्यों का विस्तृत वर्णन किया गया है। वह किस भूमिका (गुणस्थान) तक रहता है, बाद में स्वयं कब छूट जाता है ?
इसकी प्ररूपणा के द्वारा साधकों को परोक्ष रूप से संकेत भी किया है कि पुण्यकर्म यद्यपि अच्छा लगता है, सुखद और अनुकूल मालूम होता है, पुण्यकर्म के - प्रभाव से अनेक सुख - सम्पदाएँ बिना मांगे मिल जाती हैं, जगत में यश और कीर्ति फैल जाती है, परन्तु मुमुक्षु को पुण्यप्रकृति के उपार्जन के लिए ललचाना नहीं चाहिए। उसे सोने की बेड़ी और बन्धनरूप समझकर उसका त्याग करने, संवर और निर्जरा का मार्ग अपनाने का पुरुषार्थ करना चाहिए। सामान्य गृहस्थ जीवन में अगर उतना त्याग, तप, व्रतादि- पालन, क्षमादि दशविध धर्माचरण आदि शुद्धोपयोग न हो सके तो कम से कम शुभोपयोग में रहने का प्रयत्न करना चाहिए; परन्तु धर्मान्धता, साम्प्रदायिकता, पूर्वाग्रह, कदाग्रह, कलह, राग-द्वेष एवं कषाय बढ़े, ऐसे पापवर्द्धक पापबन्धक, अशुभोपयोग के विचारों और कार्यों से सदैव दूर रहना चाहिए । २
१. जीवस्थान, गुणस्थान, मार्गणास्थान के माध्यम से विविध बंधों की प्ररूपणा के लिए देखें कर्मविज्ञान ८वां खण्ड |
२. पुण्यबन्धों और पापबन्धों की प्ररूपणा के लिए देखें - कर्मविज्ञान खण्ड ७, निबन्ध २२वाँ ।
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