Book Title: Kalpsutra
Author(s): Bhadrabahuswami, Punyavijay, Bechardas Doshi
Publisher: Sarabhai Manilal Nawab
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गलिया आयरिया ' दाए भंते ।' दाते गिलाणस्स मा अपणो पडिग्गाहे चातुम्मासिगादिसु ॥ सूत्रम् २३५-पडिग्गाहे भंते ! 'त्ति अप्पणो पडिग्गाहे अज गिलाणस्स अण्णो गिहिहि ति | वा भुंचति । अध दोण्ड वि गर्हति तो पारिद्वावणियदोसा । अपरिष्वेते गेलपणादि ॥ सूत्रम् २३६-दाए पडिग्गाहे गिलागस्स अप्पयो वि, एवाऽऽयरिय-बाल-बुड्ढ-पाहुणगाण वि वितिष्णं, स एव दोसो, महुल्मवो, खीर य धरणे आत-संजमविराधणा मुत्रम २३८--"वासा० अत्थेगतिया" आयरियं वेयावाचकरो पुच्छति गिलाणं वा, इतरधा पारिद्वावणियदोसा 1 गिलाणोभासितयं मंडलीए | छम्मति, अणोभासियं छुम्भति । से य बदेजा अट्ठो अमुएण एवतितेण था, 'सेत्ति वेयावञ्चकरे । 'विष्णवेति'
ओभासति । से य पगाणपत्ते दाता भणति-पडिग्गाहे, तुम पि य भोक्खसि तोदणं दवं पाहिसि । गरहितविगति पंडिसेधति, अगरहितं जाणेत्ता णिबंधं च तं च फासुगं अस्थि ताहे गेहति, गिलाणणिस्साए ण कम्पति घेत्तुं ॥ मूत्रम् २३९--" घासावासं० अस्थि" ' तहप्पगाराई' अदुगुंछिताणि कुलागि । 'कहाणि' तेण अपणे या सावगत्तै गाहिताणि दाणसत्तं वा । ' पतियाई । धृतिकराई। ' थेग्जाई' थिगई प्रीति प्रति दाणं च | 'वेसासियाशि' बिस्संभागीयाणि तहिं च धुर्व लभामि अहं, ताणि अस्संसयं देति । [ 'सम्मयाई सम्मतो सो तत्थ पविसंतो । 'बहुमयाई' बहूण वि स सम्मतो ण एगस्स दोव्हं का बहूण वि साहणं देति । ' अणुमताई ' दातुं चेव जन्थ, [ तत्थ ] से णो कम्पति भट्टुं वहत्तएअस्थि ते आउसो ! इमं वा इमं वा! । जति भणति को दोसो ! बेद-तं तुरित श्रद्धावान् सड्ढी ओदणसत्तुग-तलाहतिया वा पुश्वकविते उण्होदए ओदणो पेज्जा वा सगेहे परगेहे चा पुब्वभावितेण उसिणदवेण समितं तिमति, तलाहतियातो आवणातो आणेति, सत्तुगा किणंति, पामिर्च वा करति ॥ सूत्रम् २४०-एगं गोयरकालं सुत्तपोरिसिं कातुं अथपोरिस कातुं एवं वारं कप्पति ॥ मूत्रम् २४१चउत्थभत्तियस त्ति, 'अमिति' प्रत्यक्षीकरणे एवतिए 'त्ति वस्यमाणो विसेसो पढमातो-प्रातः ण चरिमपोरिसीए ‘वियर्ड' उमामादिसुद्धं । णऽथ आयरिय० उवझाया गिलाण. खुड्डतो वा । संलि. हिता संपमजित्ता धाविता 'पझोसवित्तए ' परिवसित्तए । ण संथरति थोवे ते ताहे पुणो पविसति ॥ मृत्रम् २४२.--छहस्स दो गोयकरकाला । किं कारणं ! सो पुणो वि कल उवासं काहिति, जति खंडिताणि तत्तियाणि चेव कप्पति । कीस एगवारा गेण्हितुं ण धरेति ! उच्यते-सीतलं भवति संचय संसत्त-दीहादी दोसा भवंति, भुत्ताणुभुत्ते य बलं भवति, दुक्खं च घरेति त्ति । मुत्रम् २४३-- एवं अटूमम्स वि तिषिण ।। मूत्रम् २४४---व्यपगतं अष्टं न्यष्टं विकृष्ट वा, तिण्णि वि गोयरकाला 'सवे ' च तारि वि पोरुसितो || आहाराणतरं पाणगं-- मूत्रम् २४५--णिञ्चभतिगस्स 'सव्वाई जाणि पाणेसपाए भणियाणि । अधवा वश्यमाणानि नव वि उस्सेतिमादीणि ॥ सूत्रम् २४६--- च उत्थभत्तियस्स तओ-' उस्सेदिम पिटुं दीवगा वा संसेदिम' पण्णं उकड्ढे सीयलएणं सिञ्चति । 'चाउलोदगं' चाउलधोवणं || मूत्रम् २४७--छ? ' तिलोदग' लोविताण वि तिलाण धोवणं
१ वितीण प्रत्यन्तरेषु ॥ २ परिसिंधति प्रत्यन्तरेषु ॥
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