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चिन्तन का परिणाम
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पर सारा निर्णय लेते हैं। अधुरी बात कहीं से थोड़ी सुन ली, पूरी बात नहीं, पूरा पता नहीं, और तनकर बैठ जाते हैं कि उसने ऐसा कह दिया। अरे, कब कहा, किस संदर्भ में, किस लहजे में कहा, किस परिस्थति में कहा, यह सारी बात तो जानो। सारी बात जानने से शायद उस समय अहंकार का पारा उतर जाता है। क्रोध का नशा भी उतर जाता है। पर पूरी बात को कोई नहीं जानता। कोरे शब्द कान में पड़ने चाहिए, उसने मेरे लिए ऐसा कह दिया, मैं खबर लेना चाहता हूं, मैं भी देखूगा कि कैसे कह दिया ? द्वन्द्व युद्ध शुरू हो जाता है। इन अधूरी बातों से जीवन की इतनी अस्त-व्यस्तता हो जाती है कि ये सारी समस्याएं समाज में उलझती चली जाती हैं।
कोई आदमी स्वयं बदलना चाहे, कोई अपने बच्चे को बदलना चाहे, कोई अध्यापक अपने विद्यार्थी को बदलना चाहे, राष्ट्र के कर्णधार राष्ट्र को बदलना चाहें तो वे पहला प्रयत्न परिणाम को बदलने का करेंगे। वे कहेंगे-स्मगलिंग, ब्लैक मार्केटिंग नहीं होना चाहिए, यह नहीं होना चाहिए, वह नहीं होना चाहिए। थोड़े आगे जाएंगे तो प्रवृत्तियों को मिटाने की बात आएगी कि ये प्रवृत्तियां नहीं चलनी चाहिए। बड़ा आश्चर्य होता है कि वृत्तियां तो विद्यमान रहेंगी और प्रवृत्तियां बदल जाएंगी, परिणाम बदल जाएगा! अगर ऐसा होता तो आज दुनिया स्वर्ग बन जाती। सोने की बन जाती। पर ऐसा कभी नहीं होता। हम इस सच्चाई को गहराई से अनुभव करें कि वृत्ति को बदले बिना प्रवृत्ति को बदलने की कोई संभावना नहीं है और प्रवृत्ति नहीं बदलेगी तो परिणाम के बदलने की भी कोई संभावना हमारे सामने नहीं है। हम पूरी बात को पकड़ें । समग्रता की दृष्टि से चिंतन करें। उसके तीन पहलू हैं-परिणाम, प्रवृत्ति और वृत्ति। ऊपर से चलते हैं तो यह क्रम बनता है, नीचे से चलते हैं तो कार्य-कारण की श्रृंखला में वृत्ति मूल कारण है, प्रवृत्ति उसका कार्य है और परिणाम प्रवृत्ति का कार्य है-ये कार्य-कारण की श्रृंखला में तीनों जुड़ते हैं। तीनों सच्चाइयों का अनुभव करें। एक साथ अनुभव करें, ध्यान केन्द्रित करें इन पर। हमने धैर्य के क्षेत्र में भी एक सबसे बड़ी भूल की है और वह भूल यह है कि ध्यान को छोड़ दिया। और बातों को पकड़े रखा, ध्यान को छोड़ दिया। हमने वृत्ति को बदलने वाली प्रवृत्ति को छोड़ दिया। हम परिणाम चाहते हैं कि धार्मिक आदमी को बदलना चाहिए। लोग पूछते हैं, अरे, इतना धर्म किया जाता है पर समाज नहीं बदला। मुझे आश्चर्य होता है, अनन्तकाल तक धर्म चलेगा फिर भी समाज नहीं बदलेगा। तो जिस समाज में, जिस धर्म के क्षेत्र में, वृत्ति तक पहुंचने की प्रवृत्ति नहीं है वहां यह परिणाम नहीं आएगा। ध्यान की खोज इसलिए हुई थी कि प्रवृत्ति को जन्म देने वाली वृत्ति तक हम पहुंच सकें। इसके बिना हजार प्रयत्न करने पर भी हम सफल नहीं होंगे।
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