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कैसे सोचें ?
की आदतों को कैसा बदला जाए ? आदमी को चाहिए कि वह स्वयं की आदतों को भी बदले। ध्यान के द्वारा यह संभव है। ध्यान के द्वारा आदमी मानसिक दशा का निर्माण कर सकता है कि किस परिस्थिति में कैसा व्यवहार करना चाहिए, संतुलन कैसे बनाए रखा जा सकता है। यदि माता-पिता संतुलन बनाये रखते हैं तो बच्चों को जटिल परिस्थिति में से उबार कर उन्हें सुधार सकते हैं। जब बच्चा 'टेम्पर टेन्ट्रा' की बीमारी से ग्रस्त होता है और माता-पिता उसे दुत्कारते हैं, मारते-पीटते हैं तो वह बीमारी बढ़ती है, मिटती नहीं। और यदि उस बीमारी की अवस्था में माता-पिता बच्चे को स्नेह देते हैं, सान्त्वना देते हैं, प्रेम और प्रसन्नता दिखाते हैं तो धीरे-धीरे वह बीमारी मिटनी शुरू हो जाती है और बच्चा सामान्य व्यवहार करने लग जाता है। यदि उस स्थिति में माता-पिता भी वैसी ही प्रतिक्रिया करने लग जाएं जैसी प्रतिक्रिया बच्चा कर रहा है, जैसे बच्चा वस्तुएं फेंकता है तो माता-पिता गुस्से में आकर बच्चे को ही फेंकने लग जाएं, तो निश्चित ही वह बच्चा बड़ा होने पर माता-पिता को फेंकने की तैयारी करेगा।
हम आन्तरिक परिस्थितियों पर भी ध्यान केन्द्रित करें। हम यह सोचें कि बाहरी परिस्थितियों की अनुकूलता होने पर आदमी बुरा क्यों हो रहा है? इस स्थिति में हमें नए दृष्टिकोण से सोचना होगा। वहां एक प्रकाश-रेखा की जरूरत होगी, केवल अंधेरे में हाथ-पैर मारने से काम नहीं चलेगा। वहां प्रतिक्रियात्मक दृष्टिकोण से सोचना भयंकर हानिकारक हो जाएगा। आदमी की सामान्यत: धारणा प्रतिक्रियात्मक होती है, इसलिए समाधान हस्तगत नहीं होता।
प्रेक्षा-ध्यान की उपसम्पदा स्वीकार करते समय साधक एक संकल्प स्वीकार करता है। वह कहता 'मैं प्रतिक्रिया से बचूंगा। जो कुछ करूंगा, वह क्रिया ही करूंगा, प्रतिक्रिया नहीं करूंगा।' बहुत ही महत्त्वपूर्ण साधना है-प्रतिक्रिया-विरति।
सामने कोई प्रतिक्रिया आई और यदि आदमी भी वैसा ही बन जाए, प्रतिक्रिया करने लग जाए तो यह जैसे का तैसा' का सिद्धांत आदमी को बनाने का सिद्धांत नहीं, बिगाड़ने का सिद्धांत सिद्ध होता है। यह व्यक्तित्व निर्माण का सिद्धांत नहीं, व्यक्तित्व को असमय में ही मार डालने का सिद्धांत होगा। हम अनुस्रोत में नहीं प्रतिस्रोत में चलें। प्रतिक्रिया के प्रति प्रतिक्रिया न करें, क्रिया करें।
भगवान् महावीर ने कहा'अणुसोयपुट्ठिए बहुजणम्मि, पडिसोयलद्धलक्खेणं ।
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