Book Title: Kaise Soche
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 263
________________ अभय की मुद्रा कुछ बाहर में होता है, कुछ भीतर में होता है । हम बाहर और भीतर - दो हिस्सों में बंटे हुए हैं। बाहर का स्पष्ट दीखता है, भीतर का दीखता नहीं, अनुभव होता है, पता चलता है । हमारी मुद्रा होती है बाहर में । कैसे बैठते हैं, हाथ कैसे हैं, मुंह कैसे है, आकृति कैसी है, व्यंजना कैसी है, अंगुलियां कैसी हैं-ये सारी बातें मुद्रा से सम्बन्ध रखती हैं। एक होती है भाव - मुद्रा और दूसरी होती है भाव-धारा | दोनों में बहुत गहरा संबंध है। जैसी भाव-धारा होती है वैसी भाव - मुद्रा बन जाती है। मुद्रा का निर्माण करती है भाव-धारा । क्रोध का भाव जागा, क्रोध की मुद्रा बन जाएगी। बताना नहीं पड़ता, आदमी क्रोध में है । मुद्रा देखते ही पता चल जाता है कि अभी क्रोध में है। स्वयं मुद्रा सूचना दे देती है । I काव्य - शास्त्र में इस भाव - धारा का बहुत विशद विवेचना हुआ है । तीन भावधाराएं हैं- स्थायीभाव, सात्त्विकभाव और संचारीभाव । किस मुद्रा में कौन-से भाव जन्म लेते हैं ? व्यक्ति किस रूप में प्रकट होता है ? यह सारा ज्ञात हो जाता है। श्रृंगार रस की एक मुद्रा होती है, करुण रस की दूसरी मुद्रा होती है, बीभत्स रस की तीसरी मुद्रा होती है, रौद्र रस की चौथी मुद्रा होती है, शांत-रस की पांचवीं मुद्रा होती है। अलग-अलग मुद्राएं होती हैं। प्रत्येक भाव और प्रत्येक रस की भिन्न-भिन्न मुद्रा होती है । रसानुभूति, भावानुभूति और मुद्रा सब जुड़े हुए हैं। हमारी मुद्रा का संबंध भाव से जुड़ा हुआ है । भय की भाव-धारा होती है तो एक प्रकार की मुद्रा बनती है । डरा हुआ आदमी सिकुड़ जाता है। चेहरा सिकुड़ता भी है और फैलता भी है । हमारा शरीर सिकुड़ता भी है और फैलता भी है। भय से सिकुड़ता है और हर्ष से फैल जाता है । हर्षोत्फुल्ल मुख फूल की भांति खिल जाता है, भयभीत मुख बिलकुल सिकुड़ जाता है । ऐसा लगता है कि बिलकुल पतला- दुबला हो गया है । भय मुद्रा होती है, उस समय बाहरी आकृति में जो परिवर्तन होते हैं वे हमारे सामने स्पष्ट हैं । अन्तर के अवयवों में भी परिवर्तन होते हैं । हृदय की धड़कन तेज हो जाती है, रक्तचाप बढ़ जाता है, गला सूख जाता है, लार टपकाने वाली ग्रन्थियां निष्क्रिय बन जाती हैं। मुख सूखने लग जाता है । आमाशय और आंतें सिकुड़ जाती हैं, भूख भी कम हो जाती है । जो आदमी रोज डरा-डरा रहता 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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