Book Title: Kaise Soche
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 262
________________ रचनात्मक भय २५५ ललाट और मस्तिष्क का अगला हिस्सा-इस भाग पर ध्यान केन्द्रित करना होगा। इस पर ध्यान केन्द्रत किए बिना भावों को नहीं बदला जा सकता। यदि नाभि पर ध्यान केन्द्रित करते हैं, तैजसकेन्द्र पर ध्यान करते हैं तो उत्तेजना बढ़ती है, प्राणशक्ति बढ़ती है इसमें कोई संदेह नहीं। प्राण-विद्युत् का विकास हो सकता है किन्तु साथ-साथ में आवेगों का विकास भी हो सकता है। एड्रीनल का काम है सारे आवेगों को जन्म देना।। इन सारी वृत्तियों, संज्ञाओं और आवेगों पर नियंत्रण पाया जा सकता है। शक्ति-केन्द्र, ज्योति-केन्द्र और दर्शन-केन्द्र-भृकुटि से लेकर सिर के अगले भाग तक जो ये तीन केन्द्र हैं, ये सारे भाव-परिवर्तन के लिए जिम्मेदार हैं। बुरे भाव होते हैं तो यहीं से त्रवित होते हैं, अच्छे भाव पैदा होते हैं तो यहीं से स्त्रवित होते हैं। हम मानते हैं कि बुरे भावों को बदला जा सकता है। लेश्या ध्यान जैन साधना पद्धति की एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। रंगों का विभिन्न प्रकार से ध्यान करने पर विभिन्न प्रकार के मनोभाव बदल जाते हैं। 'कलर थेरापी' ने आज रंगों के महत्त्व पर बहुत प्रकाश डाला है। विदेशों में इस पर बहुत काम हो रहा है और बहुत साहित्य निकल रहा है। हमारे यहां प्राकृतिक चिकित्सा में भी रंग-चिकित्सा, सूर्य रश्मि-चिकित्सा का स्थान है। किन्तु ध्यान की प्रक्रिया के साथ लेश्याध्यान और रंगों के ध्यान की प्रक्रिया का प्रेक्षा-ध्यान की पद्धति में जो विकास हुआ है, उसे मैं बहुत महत्त्व देता हूं। प्रेक्षा-ध्यान के सारे प्रयोग अभय की चेतना को जगाने के प्रयोग हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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