Book Title: Kaise Soche
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 268
________________ अभय की मुद्रा २६१ किन्तु संग्रह के प्रति इतनी घनी मूर्छा है कि जितना अर्जित किया है उसमें एक राई भी, पाई भर भी कम न हो जाए। बहुत लोग शायद अपनी सम्पत्ति का उपभोग भी नहीं करते, किन्तु दीपवाली, रामनवमी या जो अपना एक समय है वर्ष का लेखा-जोखा करने का, तो खाते में देखते हैं कि पास में इतनी पूंजी जमा है तो इतने गहरे हर्ष का अनुभव होता है कि शायद जीवन में कभी नहीं होता, बहुत संतुष्टि मिलती है। बस, उतनी-सी संतुष्टि कि मेरे पास है। इसका और कोई अर्थ नहीं, पीछे भी कोई अर्थ नहीं, कोई उपयोग नहीं, किन्तु मेरे पास है, यह भाव ही इतना प्रफुल्ल बना देता है आदमी को कि वह सब कुछ मान लेता है। और वही भाव कि मेरे पास है' आदमी में इतना भय पैदा करता है कि रात और दिन भय से आक्रांत होता है। मुनीम धोखा न दे दे, भाई धोखा न दे दे, बाप धोखा न दे दे। निरन्तर यह सताता रहता है। एक मानसिक दृष्टि है कि मेरे पास है' और मेरे पास जो है वह कहीं चला न जाए, यह भय भी रहता है। शायद मानसिक तुष्टि तो कभी-कभी होती है पर भय का भाव तो चौबीस घंटों ही बना रहता है। संग्रह भय का सबसे बड़ा निमित्त है। असत्य भय का बहुत बड़ा निमित्त है। झूठ बोलते समय तो शायद एक मिनट लगता है। आदमी एक मिनट में झूठ बोल देता है। किन्तु झूठ बोलने के बाद, कई दिनों तक भय नहीं मिटता कि कहीं पता न लग जाए, संरक्षक को पता न लग जाए, हमेशा भय बना रहता है मन में। हिंसा भी भय की भावना है। हिंसा, असत्य और संग्रह-जब तक इनमें, इनके प्रति आसक्ति में, कमी नहीं होती, अभय की अनुप्रेक्षा कर लेने पर भी अभय का विकास हो जाये, इसमें मुझे संदेह है। यानी रचनात्मक अभय का विकास नहीं हो पाता, ध्वंसात्मक अभय का तो हो सकता है। इतना निडर बन जाए कि किसी से भी नहीं डरता, यह तो हो सकता है और अनर्थकारी भाव पैदा हो सकता है। किन्तु रचनात्मक अभय पैदा हो जाए इसमें मुझे संदेह है। मैंने दो दिन बाबा नागपाल से बहुत बातें की। मैंने एक विचित्र बात देखी कि शक्ति की उपासना है, सब कुछ है फिर भी एकमात्र स्वर है चरित्र का। चरित्र का विकास होना चाहिए। इसके सिवा दूसरी बात ही नहीं है। कहते हैं कि मैं तो किसी को भी न तो ताबीज देता हूं, न गंडा देता हूं, कुछ भी नहीं। सबको कहता हूं-आहार शुद्ध करो, व्यवहार शुद्ध करो। इसके बिना कुछ भी नहीं होगा। बहुत बड़ी बात कहते हैं। जैन परम्परा में एक आचार्य हुए हैं-आनन्दघनजी। बहुत बड़े साधक थे गुजरात के। बहुत बड़े योगी। इतनी सिद्धियां उन्हें प्राप्त थीं कि लोग पीछा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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