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कैसे सोचें ?
एक व्यक्ति से पूछा, जो बर्फ का कारखाना चला रहा था, आप जाड़े के दिनों में क्या करते हैं ? गर्मी के दिनों में तो बहुत बर्फ पैदा होती है। खूब बर्फ चलती है। पर सर्दी के दिनों में आप क्या करते हैं ?
उत्तर दिया-गर्मी के दिनों में बर्फ बनाता हूं और सर्दी के दिनों में बर्फ खाता हूं।
बिलकुल ठीक उत्तर था। सर्दी के दिनों में कारखाना तो नहीं चलता पर गर्मी के दिनों में जो आय होती है, वह सर्दी के दिनों में बैठा-बैठा खाता हूं। गर्मी में बर्फ बनाता हूं और सर्दी में वह मुझे बचाती है, मेरी रक्षा करती है। आदमी सुरक्षात्मक उपाय तो करता ही है और उस सुरक्षात्मक उपाय को ध्वंसात्मक नहीं कहा जा सकता। सुरक्षा है। प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको भय
और भय के साधनों से, निमित्तों से बचाता है। कोई भी समझदार आदमी जान-बूझकर सांप पर पैर नहीं रखता, कोई भी आदमी जान-बूझकर विष नहीं खाता । इस सुरक्षात्मक उपाय को ध्वंसात्मक भय नहीं मान सकते। वह रचनात्मक भय हो जाता है और वह भय और अभय की बीच की संध्या बन जाती है।
मुझे याद है अपने जीवन की एक घटना। मैं तेरह वर्ष का था। पूज्य कालूगणीजी मोमासर में विराज रहे थे। मैं और मेरे सहपाठी मुनि बुद्धमल्लजी दोनों पूज्य कालूगणी की उपासना में थे। पूज्य कालूगणीजी ने हमें यह दोहा सिखाया
"हर डर, गुरु डर, गांव डर, डर करणी में सार।
तुलसी डरै सो ऊबरै, गाफिल खावे मार।।" आपने अर्थ बताते हुए कहा-हर डर अर्थात् भगवान् से डरो, गुरु डर-गुरु से डरो, गांव डर-गांव से डरो, डर करणी में सार-भय निकम्मा नहीं है, भय में बहुत सार है, सारभूत वस्तु है। तुलसी डरै सो ऊबरै, गाफिल खावै मार ।' जो डरता है वह बच जाता है, जो नहीं डरता वह मार खाता है।
हमने सोचा, बहुत काम की बात बताई। मुनि तुलसी के पास पढ़ते हैं और तुलसी से वैसे ही बहुत डरते हैं। उनके पास पूज्य कालूगणी ने भी कह दिया-तुलसी डरै सो ऊबरे---तुलसी से डरता है, उबर जाता है। और गाफिल मार खा जाता है। हमें नहीं पता था कि तुलसी का मतलब संत तुलसीदास से है। तुलसीदास का यह दोहा है। हमने यही समझा और वर्षों तक यही समझते रहे कि तुलसी (मुनि तुलसी) से डरने वाला उबर जाता है
और जो तुलसी से नहीं डरता वह मार खाता है। मैं समझता हूं इस दोहे ने मेरे और मेरे सहपाठी बुद्धमल्ल-दोनों के जीवन का निर्माण किया।
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