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भय की परिस्थिति
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रक्त-संचार ठीक हो सके। आज का डॉक्टर आराम की सलाह नहीं देता। इससे ऐसा लगता है कि आज का डॉक्टर अध्यात्म के निकट आ रहा है, जाने-अनजाने।
वस्तु की अधिक सार-संभाल भी भय का उत्पादक बनता है। वस्त्रों की स्वच्छता और पहनने-ओढ़ने की चतुराई आवश्यक होती है। पर कपड़ों में इतना उलझ जाना कि सारा ध्यान उसी में अटक जाए, यह वांछनीय नहीं है। इससे भय की स्थिति बनती है, मूर्छा गहरी होती जाती है और फिर भय ही भय लगने लगता है। यह भय की बीमारी को पालने का साधन है। अधिक आराम, अधिक साज-सज्जा, कपड़ों पर ध्यान देना-ये साधन हैं भय को पालने के। इनसे भय को अधिक सुरक्षा मिलती है।
भय की चौथी परिस्थिति है-अकस्मात् भय। अकस्मात् भय की घटनाएं काल्पनिक भी होती हैं और वास्तविक भी होती हैं। कभी-कभी कोई घटना घटती है और भय उतर आता है। कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं होगा जिसने दुर्घटना का सामना न किया हो। बिना सोचे, बिना जाने अकस्मात् कोई ने कोई परिस्थिति जीवन में उतर आती है। यह आकस्मिक भय की स्थिति है। आदमी चला, सब ठीक था। अकस्मात् ठोकर लगी, डर बैठ गया। आदमी तैरने गया, अकस्मात् पैर फिसला, डूबने लगा, डर गया। अकस्मात् कोई घटना होती है और आदमी इतना सहम जाता है कि दूर भागने लग जाता हैं। ये सारी पलायनवादी वृत्तियां आकस्मिक घटनाओं के कारण होती हैं। आकस्मिक दुर्घटनाएं आकाश में हो सकती हैं, भूमि पर हो सकती हैं, वायुयान में चढ़ने वालों के साथ हो सकती हैं, भूमि पर चलने वालों के साथ हो सकती हैं, सबके साथ हो सकती हैं।
भय की पांचवी परिस्थिति है-वेदना भय । रोग, बुढ़ापा आदि वेदना का मूल है। ऐसा कौन व्यक्ति होगा जिसने अपने जीवन में रोग न भोगा हो। आजकल तो बच्चा गर्भ से रोगी बनकर आता है। जिस दिन भ्रूण बनता है, उस दिन से ही रोग को पाल लेता है, या माताएं पलवा देती हैं। वह उसी अवस्था में रोगी बन जाता है। रोग का सामना करना कोई बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात यह है कि आदमी रोग के नाम से ही डर जाता है। रोग होना एक बात है और रोग का भय होना बिल्कुल दूसरी बात है। हम इस विवेक को बहुत साफ-साफ समझें कि भय कि परिस्थिति होना और भय होना-दोनों एक बात नहीं हैं। दोनों में दूरी भी है, निकटता भी है, किन्तु दोनों एक बात नहीं हैं। दोनों बातें समानान्तर रेखा की भांति साथ-साथ तो चलती हैं, किन्तु परस्पर कहीं नहीं मिलतीं। इनका संगम कभी होता ही नही। हमने दोनों को
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